शांत बैठ कर आसमान में मंडराते बादलों को देखना, गोते लगाना सपनों के अथाह सागर में, कुछ विशेष की तलाश में भटकते रहना जीवन भर। बस ऐसा ही भटकाव है बिपिन कुमार की कृतियों में, जहां अमूर्तता अपने चरम पर होने के बावजूद कृतियां दर्शकों के पास से होकर गुजरती हैं। सघन और बिरल के बीच रेखाओं के लयात्मक परिवेश इनके कृतियों को विशेष बनाते हैं। रंगों के धब्बे, रेखाओं के सधे हुए संयोजन से जानदार स्ट्रोक में तब्दील होकर एक ऐसी दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं कि कृतियां बोल उठे। हालांकि कृतियों को आसान बनाने हेतु तमाम संघर्षों से दो चार भी होना होता है कलाकार को। बिपिन कुमार कहते हैं कि जब आपके पास सफेद स्पेस आता है समस्या वहीं से शुरू हो जाती है कि मुझे रचना क्या है? उस समय लगता है कि मुझे कुछ नहीं आता, लेकिन जैसे ही काम शुरू होता है सारी चीजें स्वत: होने लगती हैं। आप यथार्थ पर भी बहुत काम किये हैं, पर अमूर्तता जैसा आनंद वहां नहीं प्राप्त कर पाने की वजह से अमूर्त ही रच रहे हैं। सपना क्रिकेटर बनने का था, पर सपना ही रह गया। स्कूली स्तर पर कला में हुई प्रतियोगिता में पुरस्कृत हो जाने के बाद रुझान कला की तरफ हो गया।
गुरु लक्ष्मी नारायण नायक जिनकी पहचान विशेष जलरंगों के कारण रही, के स्नेह और विश्वास की बदौलत पिताजी भी कला के क्षेत्र में भेजने हेतु राजी हो गये। हालांकि आम धारणा की तरह जैसे वो भी अपने पुत्र को डॉक्टर या इंजीनियर ही बनाना चाहते थे। आप पटना आर्ट कॉलेज के छात्र बन गये। लगातार अच्छा करने के प्रयास तथा निरंतर अध्ययन के बल पर आप अपनी राह खुद तय कर रहे थे कि मास्टर हेतु आपका चयन कॉलेज आॅफ आर्ट दिल्ली में हो गया। भीड़, बाजार, पार्कों में जाकर लाइव स्टडी भी आपके दैनिक गतिविधियों में शुमार था। बढेरा में सामूहिक प्रदर्शनी, अखबार में इलेस्ट्रेटर की नौकरी, बाद में गुड़गांव की एक कंपनी में क्रिएटिव आर्ट डायरेक्टर जैसे तमाम पदों पर चयन आपके काबिलियत को बखूबी बयां करते हैं। कला को पूरा समय ना दे पाने के बावजूद आप कला के ही होकर रहे। सामूहिक प्रदर्शनी में प्रतिभाग निरंतर बना रहा, पर एकल प्रदर्शनी बहुत ही कम हो सकी। गायतोंडे, रामकुमार, रजा, खासतौर से भारतीय अमूर्त चित्रण के धनी कलाकारों से खुद को बहुत प्रभावित मानने वाले बिपिन कुमार आकारों में बंधना पसंद नहीं करते, बल्कि खुले आकाश की चाह रखते हैं।
बंधनों से मुक्त हो सृजन कर्म में रमे रहना चाहते हैं। बिना आकार के रंग भावहीन होता है, शब्दों में भी गति होती है, मौन का भी अपना एक भाव होता है, शब्द होता है जैसे गूढ़ रहस्यों को खुद में समेटे आप गूढ़ विषयों पर तूलिका चलाने से भी परहेज नहीं करते। 1987 में निर्मित ‘व्हील आॅफ लाइफ’ श्रृंखला में जहां कुत्तों की जीवनचर्या के माध्यम से कई रहस्यों को सुलझाने का प्रयास हुआ है तथा ‘स्नेक (सर्प)’ जिसके नाम से भय फैल जाता है, में आप लय, रिदम, तेजी तथा मूवमेंट को खोजते हुए उस पर पूरी श्रृंखला तैयार करते हैं। आप कहते हैं कि मेरा मानना है कि मैं कैनवास पर जो भी रंग लगाता हूं वह एक सोसाइटी की तरह है जिनका अपना-अपना महत्व होता है।
समाज में कुछ लोग उत्प्रेरक होते हैं, कुछ लोग उत्तेजक, कुछ लोग शांत होते हैं तो कुछ लोग सुलझे हुए बिल्कुल यही हाल कैनवास पर रंगों का भी होता है, पर उन्हें बैलेंस करना भी हम कलाकारों का ही काम है। सभी माध्यम में समान रूप से काम करते रहने के बावजूद इन दिनों आप ऐक्रेलिक और आॅयल पेस्टल के कॉन्बिनेशन में खुद को ज्यादा सहज महसूस कर रहे हैं। आपके श्याम-स्वेत चित्र भी भावपूर्ण हैं। आकार में छोटे पर सशक्त काम के साथ ही आपके संग्रह में बड़े-बड़े काम भी है। सॉफ्ट पेस्टल का सहज प्रयोग देखते बनता है। 15 दिसंबर 1967 को बिहार के मुंगेर में जन्मे बिपिन कुमार की कृतियां राष्ट्रीय ललित कला अकादमी, नई दिल्ली, भारत भवन, भोपाल (बिनाले), आइफेक्स, बोधगया (बिनाले) आदि जगहों पर प्रदर्शित एवं प्रशंसित रहीं। साथ ही प्राइवेट संग्रहों में भी हैं। सन 2000 में हुए एक दुर्घटना से आप कई वर्षों तक कार्य नहीं कर सके। आपकी एक आंख जाती रही। हताशा के बादल सघन हो चुके थे पर तीव्र इच्छाशक्ति की बदौलत धीरे-धीरे ही सही बादल छंटे और आप अपने सृजनशीलता की तरफ लौट आए। अब आप पूरी तरह से कला के ही हो गये हैं।
पंकज तिवारी