Thursday, March 27, 2025
32.8 C
Faridabad
इपेपर

रेडियो

No menu items!
HomeEDITORIAL News in Hindiयूरोप और एशिया में बदलाव की बयार बह रही है?

यूरोप और एशिया में बदलाव की बयार बह रही है?

Google News
Google News

- Advertisement -

यह वैश्विक राजनीति में हो क्या रहा है? शुक्रवार को इंग्लैंड की सत्ता पर पिछले 14 साल से काबिज इंग्लैंड की कंजर्वेटिव पार्टी चुनाव हार गई। जीत हुई लेबर पार्टी की। इंग्लैंड की सियासत में लेबर पार्टी को वामपंथी माना जाता है। है भी। शनिवार को ईरान में उदारवादी कहे जाने वाले मसूद पजशकियान नौवें राष्ट्रपति बने। कट्टरपंथी सईद जलीली बुरी तरह हार गए। सोमवार को फ्रांस में हुए चुनाव परिणाम सामने आए, तो यूरोपीय यूनियन में शामिल देश ही नहीं, पूरी दुनिया चकित रह गई। फ्रांस में मध्यमार्गी माने जाने वाले राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों की पार्टी रेनेसां 163 सीटों के साथ दूसरे नंबर रही। पहले नंबर पर रही वामपंथी न्यू पॉपुलर फ्रंट जिसने 182 सीटें हासिल की हैं। एग्जिट पोल में जिस पार्टी को सबसे ज्यादा सीटें जीतने का दावा किया गया था, वह दक्षिणपंथी नेशनल रैली सिर्फ 143 सीटें ही जीतने में कामयाब रही। भारत की तरह ही फ्रांस में भी एग्जिट पोल पूरी तरह गलत साबित हुए। फ्रांस में आए नतीजे बताते हैं कि वहां 577 सीटों में से सरकार बनाने के लिए आवश्यक 289 सीटें किसी को हासिल नहीं हुई हैं।

इन तीनों पार्टियों में से किसी दो को या तो गठबंधन करना होगा या फिर बाहर रहकर समर्थन देना होगा। दो महीने पहले भारत लोकसभा चुनाव परिणामों को भी यदि इस विश्लेषण में शामिल कर लें, तो इन आंकड़ों यह लग सकता है कि यूरोप और मध्य और पूर्व एशियाई देशों में अब लोग कट्टरवादी ताकतों से ऊब चुके हैं। जबकि ऐसा व्यावहारिक रूप से होता नहीं है। दुनिया के किसी भी हिस्से की आम जनता किसी भी रूप में कट्टरपंथ को पसंद नहीं करती है। कट्टरपंथी या अति राष्ट्रवादी बनाने का काम पूंजीवादी व्यवस्था करती है। मरणासन्न और जर्जर पूंजीवादी अर्थव्यवस्था अपने आप को बचाए रखने के लिए कभी राष्ट्रवादी उभार को प्रश्रय देती है, तो कभी उदारवाद को और कभी नवउदारवाद। कारण यह है कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था अपने विकास के अंतिम दौर से गुजर रही है। गरीबी, बेकारी, महंगाई और सामाजिक अराजकता से पूरी दुनिया त्रस्त है।

यह सारी समस्याएं कमोबेश पूरी दुनिया के तानाशाही और लोकतांत्रिक शासन में मौजूद है। आर्थिक आधार पर अमीर और गरीब के बीच में खाई इतनी बढ़ती जा रही है कि इस व्यवस्था के संचालकों को विद्रोह का खतरा महसूस होने लगा है। यही वजह है कि जब किसी देश में कोई चुनाव होने वाला होता है, तो उससे काफी पहले इस व्यवस्था के संचालक उस देश की जनता का ब्रेनवाश साहित्य, फिल्म, राजनीतिक सभाओं, सेमिनारों और मीडिया के जरिये करने लगते हैं। इन सारे मंचों को देशी-विदेशी सरकारें अकूत धन मुहैया कराकर जनता को बरगलाने का प्रयास करती हैं, कभी राष्ट्रवाद के नाम पर, तो सभी सेकुलरिज्म के नाम पर। जब व्यवस्था के संचालक देखते हैं कि सेकुलरिज्म फेल हो रहा है, तो राष्ट्रवादियों के पक्ष में हवा बनाते हैं। राष्ट्रवादी फेल होते दिखते हैं, तो सेकुलरवादियों को लाकर सत्ता पर बिठा देते हैं और जनता आश्चर्यचकित होकर यह तमाशा देखती रहती है और ताली बजाती है।

-संजय मग्गू

- Advertisement -
RELATED ARTICLES
Desh Rojana News

Most Popular

Must Read

Recent Comments