इन दिनों दुनिया के बुद्धिजीवियों में एक शब्द की बहुत ज्यादा चर्चा हो रही है और वह है-जेनोफोबिक। एक मई को फंड जुटाने वाले कार्यक्रम में एशियाई-अमेरिकी लोगों से बात करते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने भारत, चीन, रूस, जापान को जेनोफोबिक बताया है। जेनोफोबिक का मतलब है, ऐसा देश जो बाहर से आने वाले लोगों से घृणा करता है, डरता है और स्वीकार नहीं करता है। भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने इस बात को नकार दिया है। सच तो यह है कि इन दिनों लोकसभा चुनाव के दौरान भारत में मुसलमानों को लेकर जो विचार व्यक्त किए जा रहे हैं, बाइडेन ने उसको देखते हुए यह धारणा बनाई है, ऐसा प्रतीत होता है। यदि भारत के इतिहास का गंभीरता से अध्ययन किया जाए, तो भारत के जेनोफेबिक होने की बात पूरी तरह खारिज हो जाती है।
बात करते हैं ईसा से पूर्व की। हमारे देश में महात्मा बुद्ध से पहले और उनके बाद बाहर से आने वालों का सिलसिला शुरू हुआ था। प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करें, तो ईस्वी 80 में अयोध्या में पैदा हुए संस्कृत नाटकों के जनक कहे जाने वाले अश्वघोष के समय से बहुत पहले यवन हमारे देश में आकर बस चुके थे। प्राचीन ग्रंथ बताते हैं कि पंजाब, अयोध्या, कन्नौज आदि में यवन काफी संख्या में रहते थे और हमारे देश के व्यापार, कला और संस्कृति में उनकी अहम भूमिका रही है। यदि भारत जेनोफोबिक होता तो क्या ईसा पूर्व यवनों का भारत में प्रवेश और व्यापार संभव था? अयोध्या में तो कई नगर श्रेष्ठी तक यवन थे। अश्वघोष खुद एक यवन कन्या से प्रेम करता था, लेकिन उसकी मां सुवर्णक्षी को यह मंजूर नहीं था। संस्कृत साहित्य में पहला नाटक लिखने वाले अश्वघोष ने यवन नाट्यशास्त्र से बहुत कुछ सीखा था और यही वजह है कि सबसे अंत में ‘पर्दा गिरता है’ जैसे शब्द के लिए ‘यवनिका’ शब्द का उपयोग किया है।
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यवनों के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए। इसके बाद शक आए, हूण आए, कुषाण आए, कनिष्क आए, शाक्यद्वीपी आए, आभीर आए, चीनी आए, तुर्क आए, मुगल आए, पुर्तगाली आए और सबसे अंत में अंग्रेज आए। विदेश से आने वाले इन लोगों में से कितने लोग वापस गए? केवल अंग्रेजों को छोड़कर कोई नहीं। सब इसी देश की सभ्यता और संस्कृति में रम गए। आज यवनों, शकों, कुषाणों, हूणों, कनिष्कों, शाक्यद्वीपियों को हम अलग से पहचान सकते हैं। नहीं।
आज वे अपनी मूल पहचान को बिसरा कर भारतीयता में समाहित हो गए हैं। ऐसी सभ्यता और संस्कृति वाले देश भारत को जेनोफोबिक कहना हमारे देश का अपमान करना है। यह भी सही है कि भारत से कुछ कम चीन, जापान जैसे देशों को भी विदेशियों का आक्रमण झेलना पड़ा, लेकिन भारत को अपनी समृद्धि के चलते बहुत कुछ भोगना पड़ा। हमले दर हमले झेलकर भी सबको अपने में समाहित कर लेने वाले भारतीयों को यदि जेनोफोबिक कहा गया, तो कोई भी भारतीय इसे कतई स्वीकार नहीं करेगा। हमारी सभ्यता, संस्कृति और विविधता ही देश की शक्ति रही है जिसकी वजह से हम आज भी कायम हैं।
संजय मग्गू
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