सिख धर्म का उदय मानवता की रक्षा के लिए हुआ था। सिख धर्म के महान गुरुओं ने अपने शिष्यों को प्रेम और सेवा का मार्ग दिखाकर उस पर चलने की प्रेरणा दी। उन्होंने जात-पात, धर्म-संप्रदाय से ऊपर उठकर इंसानियत की सेवा करने की सीख दी। भूखों को भोजन कराने के उद्देश्य से ही लंगर की परंपरा चलाई ताकि कोई भी गरीब व्यक्ति शर्मिंदा हुए बिना अपना पेट भर सके।
इसे शायद धार्मिक बाना इसलिए पहनाया गया कि लोगों में सेवा की भावना बनी रहे। सिख धर्म के तीसरे गुरु अमरदास जी अक्सर अपने उत्तराधिकारी के बारे में सोचा करते थे। वैसे उनके दोनों बेटे और एक दामाद भी गुरु पद की इच्छा पाले हुए थे। गुरु जी उस व्यक्ति को गुरु गद्दी देना चाहते थे जो योग्य हो और सबका भला सोचता हो। एक दिन उन्होंने अपने शिष्यों की परीक्षा लेने की सोची।
उन्होंने शिष्यों से कहा कि सभी लोग जाएं और सामने की मैदान से मिट्टी लेकर एक चबूतरा बनाएं। गुरु अमरदास जी के बेटे और दामाद सहित सभी शिष्य चबूतरा बनाने में जुट गए। जब सबके चबूतरे बन गए, तो गुरु जी ने सबसे कहा कि चबूतरे अच्छे नहीं बने हैं, तोड़कर इसे दोबारा बनाएं। सबने एक बार फिर ऐसा ही किया, लेकिन गुरु जी संतुष्य नहीं हुए। तीन-चार बार के बाद ज्यादातर लोगों ने चबूतरा बनाना ही बंद कर दिया।
बस, सेवक रामदास अपने काम में जुटा रहा। लोगों ने कहा कि तू फालतू में चबूतरा बना बनाकर क्यों परेशान हो रहा है। रामदास ने कहा कि यदि गुरु जी आजीवन चबूरा बनाने को कहेंगे, तो भी मैं बनाता रहूंगा। कहते हैं कि रामदास ने 70 बार चबूतरा बनाया। गुरु जी रामदास की गुरु भक्ति और धैर्य से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने रामदास को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।
-अशोक मिश्र