सिख धर्म के गुरुओं ने अपने जीवन काल में हमेशा कुप्रथाओं का विरोध किया। वे समाज में व्याप्त ऊंच-नीच, जात-पांत जैसी कुरीतियों को खत्म करने का प्रयास करते रहे। उन्होंने अपनी शिक्षाओं में हमेशा यही कहा कि सभी इंसान बराबर हैं। एक बार की बात है। गुरुनानक देव अपने प्रिय शिष्य मरदाना के साथ विंध्याचल की ओर जा रहे थे। वह ज्यादातर एक जगह नहीं टिकते थे। वह लगातार यात्रा करते रहते थे और लोगों को उपदेश दिया करते थे। किसी काम से मरदाना पीछे रह गया, तो विंध्याचल के जंगलों में रहने वाले कुछ लोग मरदाना को पकड़कर अपने साथ ले गए।
वे लोग मरदाना को लेकर एक गुफा में पहुंचे। उन दिनों आदिवासियों में हर अष्टमी तिथि को किसी न किसी नर की बलि देने की प्रथा थी। उस दिन भी अष्टमी थी। मरदाना को लेकर जाकर भैरवी देवी के सामने बैठा दिया। उस दौरान सारे अदिवासी स्त्री-पुरुष विभिन्न वाद्य यंत्र बजाकर अपनी भाषा में मंत्र और लोकगीत गा रहे थे। कुछ तो देवी भैरवी की मूर्ति के सामने नृत्य भी कर रहे थे। भैरवी की पूजा के बाद जब आदिवासियों क ा मुखिया, मरदाना की बलि चढ़ाने आगे बढ़ा तो पीछे से गुरुनानक देव की आवाज गूंजी, वाहे गुरु। यह आवाज सुनकर मुखिया चौंक गया और उसके हाथ रुक गए।
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उसने कड़ककर पूछा, कौन हो तुम? गुरु जी ने जवाब दिया, तुम्हारी तरह प्रभु का एक बंदा। मुखिया ने कहा कि लोग तो हमें राक्षस कहते हैं। गुरु जी ने जवाब दिया कि तुम हो तो आदमी, लेकिन काम जरूर राक्षसों वाले हैं। तुम्हारी देवी क्या किसी मरे हुए को जिंदा कर सकती है। मुखिया ने कहा, नहीं। तब गुरु जी ने कहा कि तब तुम्हें किसी के प्राण लेने का क्या अधिकार है। गुरु जी की बात का उन पर इतना असर हुआ कि उन्होंने भविष्य में नरबलि न देने की प्रतिज्ञा की।
-अशोक मिश्र
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