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बिना परिश्रम किए मिला ज्ञान किसी काम का नहीं

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हमारे धर्मग्रंथों और प्राचीन कलाकृतियों में बहुत सारी चीजें बड़ी सूक्ष्मता से दर्शाई गई हैं। बस, इसके लिए मेहनत करने की जरूरत है। कहा जाता है कि जो ज्ञान बिना किसी मेहनत के हासिल हो जाता है, वह स्थायी और मूल्यवान नहीं होता है। हमारी युवा पीढ़ी की आज यही दशा है। उसके सामने ज्ञान का अथाह भंडार खुला हुआ है, लेकिन उसमें से कौन सा तथ्यपूर्ण है और कौन सा असत्य है? इसका कोई भान नहीं है। सोशल मीडिया हमें थोक में ज्ञान उपलब्ध करा रहा है। अगर हम अपने प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करें, तो पाते हैं कि गुरुकुलों में अनुभूतिजन्य ज्ञान और पाठ्यक्रम वाले ज्ञान दोनों को महत्ता प्रदान की जाती थी। समाज में किसी की चाहे जितनी ऊंची हैसियत हो, वह अपने बच्चे को गुरुकल में ही पढ़ने को भेजता था ताकि उसे ज्ञान अर्जित करने के लिए परिश्रम करना पड़े। वे परिश्रम की महत्ता को समझते थे। राजा हो या रंक, किसी के भी बच्चे को ज्ञान अर्जित करते समय किसी प्रकार की छूट नहीं मिलती थी।

हमने तांडव करते शिव जी की नटराज मूर्ति कई बार देखी होगी। शिव जी के तांडव करने की कथा भी मालूम होगी, लेकिन नटराज मूर्ति को बड़े ध्यान से देखिए, तो उसमें एक बहुत बड़ा संदेश भी छिपा हुआ है। नटराज शिव का दायां पैर एक बौने के ऊपर है। इस बौने का सिर तो राक्षस का है और बाकी हिस्सा बच्चे का। यह बौना उसी अज्ञानता का प्रतीक है जिसे शिवजी दबाना चाहते हैं। हम सभी जानते हैं कि अज्ञानता को दबाने के बाद ही ज्ञान हासिल किया जा सकता है। अगर पूरी दुनिया से अज्ञानता मिट जाए, तो क्या होगा? दुनिया के सभी लोग ज्ञानवान हो जाएंगे, यह स्वाभाविक रूप से कहा जा सकता है। लेकिन उस ज्ञान का कोई महत्व रह जाएगा? नहीं, उस ज्ञान का कोई महत्व नहीं रह जाएगा क्योंकि दुनिया का हर व्यक्ति स्वत: ज्ञानी होगा।

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उसे ज्ञान हासिल करने के लिए कोई परिश्रम तो करना नहीं पड़ा है, इसलिए वह इसका मूल्य भी नहीं समझेगा। फिर कौन किसके सामने अपने ज्ञान का प्रदर्शन करेगा। हमारे देश में शास्त्रार्थ की एक लंबी परंपरा रही है। शास्त्रार्थ क्यों किए जाते थे? इसलिए ताकि दो विद्वानों के ज्ञान का पता लगाया जा सके। जो हार जाता था, वह अपने ज्ञान में परिमार्जन करता था। वह और ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करता था।

शंकराचार्य से पहले और उनके बाद भी काफी दिनों तक यह परंपरा कायम रही। आज शास्त्रार्थ का विकृत रूप बहस सामने आया है जिसमें तर्क, कुतर्क और व्यक्तिगत टिप्पणियां की जाती हैं। यदि हमें वास्तव में ज्ञान चाहिए, तो उसके लिए जरूरी है कि हम मेहनत करें। अध्ययन करने की जहमत उठाएं। शास्त्रार्थ करें, हार जाएं तो पता लगाएं कि हममें क्या कमी रह गई थी। यह प्रवृत्ति सोशल मीडिया, चैटजीपीटी या एआई (कृत्रिम मेधा) नहीं पैदा कर सकती है। यह सब साधन तो हमारी मेधा को और कुंद करने के साधन हैं। जब तक हम इनके मायाजाल से मुक्त नहीं होंगे, हमें सच्चा ज्ञान हासिल होने से रहा।

Sanjay Maggu

-संजय मग्गू

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