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मामूली बात पर भी विरोधियों पर मुकदमा दर्ज कराने की प्रवृत्ति

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हमारे देश के संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हर किसी को दी गई है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व्यक्ति की संपत्ति, सामाजिक, राजाीतिक प्रतिष्ठा या किसी सरकारी ओहदे की मोहताज नहीं है। व्यक्ति अमीर हो या गरीब, छोटा हो या बड़ा, सबको अपनी बात कहने और लोगों तक पहुंचाने का अधिकार है। इसी बात की पुष्टि सुप्रीमकोर्ट ने की है। सुप्रीमकोर्ट ने सोमवार को एक यूट्यूबर की जमानत को बहाल करते हुए कहा कि यदि सोशल मीडिया पर आरोप लगाने वालों को जेल भेजना शुरू कर दिया गया, तो जेलें कैदियों से भर जाएंगी। हर आरोप लगाने वाले को जेल भेजना कतई उचित नहीं है। इस मामले में हुआ यह था कि यूट्यूबर ए. दुरइमुरुगन सत्तई ने तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बारे में 2021 में अपने विचार व्यक्त किए थे।

इससे नाराज होकर सीएम स्टालिन ने यूट्यूबर सत्तई के खिलाफ मामला दर्ज करवा दिया। मामला हाईकोर्ट में गया तो उसे जमानत मिल गई, लेकिन जमानत पर बाहर आने के बाद उसने कुछ बयान दिए जिसको हाईकोर्ट ने जमानत की शर्तों का उल्लंघन माना। सत्तई ने हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीमकोर्ट में अपील की तो सुप्रीमकोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को रद्द करते हुए कहा कि सोशल मीडिया पर आरोप लगाने वाले हर शख्स को जेल नहीं भेज सकते हैं। इन दिनों देश में जो बयार बह रही है, वह सचमुच चिंताजनक है। लोग सोशल मीडिया पर अपने विचारों को रख रहे हैं। कुछ लोग तो अपने विरोधियों के कुछ लिखने का जैसे इंतजार करते रहते हैं। इधर उन्होंने सोशल मीडिया पर कुछ लिखा, उधर विभिन्न स्थानों पर केस दर्ज हो जाते हैं। लोग मामूली बातों पर भी मुकदमे दर्ज करवा रहे हैं।

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इसके पीछे अपने विरोधी विचारधारा वाले लोगों को परेशान करने की मंशा होती है। राजनीतिक दलों ने भी यही रास्ता अख्तियार कर रखा है। चुनावी रैलियों में कई बार लोग व्यक्तिगत हमला करने लगते हैं। विरोधी दल के कार्यकर्ता मामले को तूल देकर चुनाव आयोग से शिकायत करने के साथ-साथ पुलिस में एफआईआर तक दर्ज करवा देते हैं। यह चलन रुकना चाहिए। सोशल मीडिया पर कुछ लोग तो नैतिकता की हद पार कर जाते हैं।

गालीगलौज तक अपने विरोधी विचारधारा वाले व्यक्ति के साथ करने लगते हैं। ऐसी ऐसी भाषा का उपयोग करते हैं, जिसे पढ़कर ही शर्म आ जाए। विरोध की भाषा मर्यादित होनी चाहिए। ऐसे शब्दों का चयन करना चाहिए कि बात भी उन तक पहुंच जाए और उसे बुरा भी नहीं लगे। दो-तीन दशक पहले राजनीतिक दलों के नेता और कार्यकर्ता अपने विरोधियों से बहुत सम्मान के साथ बात करते थे। विचारधारा, कार्यक्रम और नीतियों की जमकर आलोचना करते थे, लेकिन व्यक्तिगत हमला करने से परहेज करते थे।

Sanjay Maggu

-संजय मग्गू

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