क्या सचमुच राजनीतिक रूप से भारत को उत्तर और दक्षिण में बांटने की कोशिश हो रही है? सोशल मीडिया पर एक ट्वीट को रीट्वीट करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कांग्रेस पर देश को उत्तर-दक्षिण में बांटने का आरोपी बताकर तंज किया है। डीएमके सांसद सेंथिल कुमार के संसद में हिंदी पट्टी के राज्यों को गोमूत्र राज्य कहने का मुद्दा अभी ठंडा भी नहीं हुआ था कि तेलंगाना के नवनियुक्त रेवंत रेड्डी ने केसीआर के डीएनए की तुलना बिहार से करके एक नया बखेड़ा खड़ा कर दिया।
भाजपा इस मुद्दे को बहुत जोरशोर से उठा रही है। वह इस मुद्दे को उठाकर उत्तर में लाभ उठाना ही चाहती है, वह दक्षिण में भी घुसपैठ करने की जुगाड़ में है। यदि हम इतिहास में जाएं, तो पता चलता है कि राजनीतिक रूप से यह बंटवारा कोई आज का नहीं है। वैसे सामाजिक रूप से उत्तर-दक्षिण में कोई बंटवारा नहीं है। दक्षिण भारत के लोग उत्तर भारत में आते हैं, यहां रहते हैं, यहां की भाषा सीखते हैं और कई लोग तो यहां बस भी जाते हैं। ऐसा ही उत्तर भारत के लोग भी करते हैं।
दक्षिणी राज्यों में उत्तर भारतीय आपको बहुतायत में मिल जाएंगे और उनके साथ कोई भेदभाव भी नहीं होता है। लेकिन राजनीतिक रूप से यह विभाजक रेखा आजादी के कुछ साल बाद ही खिंच गई थी। इसका कारण भाषा, रीति-रिवाज, परंपराएं और खानपान की वैभिन्यता थी। किसी ने जानबूझकर यह विभाजन नहीं किया था। हां, दक्षिण भारत के राज्यों तेलंगाना, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी में से तमिलनाडु की द्रविड़ मुनेत्र कड़गम ही एकमात्र ऐसी पार्टी है जो हिंदीभाषा की प्रबल विरोधी रही है।
इसके नाम से ही स्पष्ट है कि यह द्रविड़ सभ्यता, उसकी भाषा और परंपराओं को ही श्रेष्ठ मानती है। लगभग अन्ना द्रमुक की भी यही मानसिकता रही है। भाजपा और कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उससे ज्यादातर नेता हिंदी बोलते हैं। जिन मुद्दों को लेकर वे उत्तर भारत में बड़ी सहजता से अपने मतदाताओं को लुभा लेते हैं, उतनी आसानी से दक्षिण भारत में वे प्रभावी नहीं रहते हैं। हिंदुत्व का मुद्दा कभी दक्षिण भारत में प्रभावी नहीं रहा। वर्ष 1977 में जब कांग्रेस उत्तर भारत में काफी हद तक सिमट गई थी, तब उसने दक्षिण भारत में अच्छा प्रदर्शन किया था।
भाजपा का बंगाल और ओडिसा में भी बहुत अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई क्योंकि यहां भी भाषा सबसे बड़ा मसला है। दक्षिण भारत के राज्य हमेशा केंद्र पर अपने ऊपर हिंदी थोपने का आरोप लगाते रहे हैं। इसके लिए कई बार हिंसक प्रदर्शन भी हुए हैं। इस बात से कोई भी इनकार नहीं कर सकता है कि उत्तर और दक्षिण भारत की संस्कृति, सभ्यता, भाषा, परंपराएं और स्थानीय मुद्दे एकदम भिन्न हैं। जो मुद्दे दक्षिण में प्रभावी हो सकते हैं, वह उत्तर में बेकार साबित होते हैं। यही हाल उत्तर भारत के मुद्दों का है, वे दक्षिण में निष्प्रभावी साबित होते हैं। हां, दक्षिण के नेताओं के बयान इंडिया गठबंधन में शामिल उत्तर भारत की पार्टियों को जरूर नुकसान पहुंचा सकती है। दक्षिण में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।
-संजय मग्गू