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बस्ती बसाओ, लेकिन मंगल ग्रह को धरती जैसा तो नहीं बना दोगे

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एक तरफ तो बड़े गर्व से पूरी दुनिया को चीख-चीख कर बताते हैं कि अगले तीन दशक में हम मंगल ग्रह पर शहर बसाने में कामयाब हो जाएंगे। यह घोषणा भी दुनिया के सबसे अमीर कहे जाने वाले एलन मस्क ने की है। उनका कहना है कि बस, मंगल ग्रह पर इंसान के पहुंचने में कुछ साल की देरी है। बहुत बढ़िया बात कही है एलन मस्क ने। लेकिन एलन मस्क, मेहरबानी करके यह बताएंगे कि तीन दशक बाद जब हम मंगल ग्रह पर मानव बस्तियां बसाने में सक्षम हो जाएंगे, तो उसकी भी दुर्दशा पृथ्वी की तरह नहीं करेंगे, इसकी क्या गारंटी है? आज पृथ्वी की जो दशा-दुर्दशा है, उसके लिए कौन जिम्मेदार है? कुछ सौ साल बाद मंगल गृह को एक उजाड़, कबाड़ ग्रह में नहीं बदल देंगे, इसकी गारंटी लेने को शायद ही कोई तैयार हो। कितनी सुंदर, प्यारी, मनमोहक और हरीतिमा से परिपूर्ण थी हमारी पृथ्वी।

साल भर अजस्र प्रवाह वाली कलकल करती नदियां, अनंन गहराई लिए समुद्र और आकाश के सामने सीना तान कर खड़ी पर्वत शृंखलाएं कुछ सौ साल पहले हमारी थाती थीं, भौतिक और प्राकृतिक संपदा थीं। हमारे पुरखों को इन संपदाओं पर गर्व था। लेकिन कुछ हमारे ही पुरखों ने औद्योगिक क्रांति के नाम पर चंद मशीनों का आविष्कार क्या किया, मानो जलवायु परिवर्तन की आधारशिला ही रख दी। पूरी दुनिया में उद्योगों ने पंख पसारे, नई-नई उड़ानें भरी और नतीजा यह हुआ कि उन मशीनों ने अपने असंख्य मुंह से कार्बन डाई आक्साइड उगलना शुरू किया। तब किसी ने ध्यान ही नहीं दिया, हम चेते तब, जब पृथ्वी का तापमान 1.8 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका था।

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अफसोस की बात है कि दुनिया भर के वैज्ञानिक, राष्ट्राध्यक्ष और जनसरोकारों का दम भरने वाले नेता जलवायु परिवर्तन के कारण पैदा हुए संकट की गंभीरता को जानते हुए भी रुचि नहीं ले रहे हैं। अमीर और विकसित देश कार्बन उत्सर्जन रोकने के लिए होने वाले खर्च की जिम्मेदारी गरीब और अविकसित देशों के कमजोर कंधों पर डालकर निश्चित हो जाना चाहते हैं, जबकि सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जन उनके ही देश में होता है। हार्वर्ड और नार्थवेस्टर्न विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने अपने शोध में जो खुलासा किया है, वह चिंताजनक है। शोध में बताया गया है कि पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था को अनुमान से छह गुना ज्यादा नुकसान हो रहा है और कोई इसे गंभीरता से लेने को तैयार नहीं है।

एक टन अतिरिक्त कार्बन उत्सर्जन पर 1056 डालर का नुकसान हो रहा है। 173 देशों में किए गए अध्ययन के आधार पर शोधकर्ताओं ने कहा है कि हीटवेव, तूफान, बाढ़ और पहाड़ों पर पिघलते ग्लेशियरों ने पूरी मानव जाति को खतरे में डाल दिया है। जलवायु परिवर्तन के कारण फसलों की पैदावार घट रही है। यानी निकट भविष्य में पूरी दुनिया में खाद्यान्न संकट का भी खतरा मंडरा रहा है। सदी के अंत तक 38 ट्रिलियन डॉलर के नुकसान का अनुमान है यानी भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश और चीन की कुल अर्थव्यवस्था के बराबर। अब समय है संभलने का, नहीं तो….।

Sanjay Maggu

-संजय मग्गू

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