उच्चतम न्यायालय शुक्रवार को यह फैसला सुनाएगा कि क्या अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (Aligarh Muslim University) को संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक का दर्जा मिलना चाहिए या नहीं। यह अनुच्छेद धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को अपनी शैक्षणिक संस्थाएं स्थापित करने और उनका संचालन करने का अधिकार देता है।
प्रधान न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात न्यायाधीशों की पीठ यह फैसला सुनाएगी। पीठ में न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता, न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा भी शामिल हैं।
इस मामले में दलीलें आठ दिन तक सुनने के बाद न्यायालय ने इस सवाल पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था।
AMU के अल्पसंख्यक दर्जे पर क्या था विवाद?
एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जे का मुद्दा जटिल है। 1981 में एएमयू अधिनियम में संशोधन किया गया था, जिसने इसे अल्पसंख्यक दर्जा दिया, लेकिन यह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं किया कि इसे पहले जैसा दर्जा मिले। 1920 में एएमयू को एक विश्वविद्यालय का रूप दिया गया था, और 1951 में उसके छात्रों के लिए धार्मिक शिक्षा की अनिवार्यता को समाप्त किया गया था।
क्या कहा सरकार और विरोधी पक्ष ने?
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा था कि एएमयू जैसे बड़े विश्वविद्यालय को किसी विशेष धार्मिक संप्रदाय से जोड़कर नहीं देखा जा सकता, क्योंकि यह सरकार से भारी धनराशि प्राप्त करता है और राष्ट्रीय महत्व का संस्थान है। वहीं, एएमयू का यह भी कहना था कि वह मुस्लिम समुदाय के लिए एक ऐतिहासिक संस्थान है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 1981 में किए गए संशोधन को खारिज कर दिया था, जिससे एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा मिला था। इस फैसले के खिलाफ एएमयू और अन्य पक्षों ने उच्चतम न्यायालय में अपील की थी।