मध्य काल में भारतीय मसालों की कभी यूरोप तक जबरदस्त मांग थी। हल्दी, काली मिर्च, दालचीनी, अदरक, तेजपत्ता और लौंग का दीवाना तो आज से हजार-दो हजार साल पहले से मध्य एशिया और यूरोप रहा है। भारतीय व्यापारी अफगानिस्तान के रास्ते से होकर ईरान, इराक तक पहुंचते थे और उनको अपने देश में पैदा हुए मसाले बेचकर भारी मुनाफा कमाकर भारत लौटते थे। ईरान, इराक, तुर्की, सऊदी अरब जैसे देश इन मसालों को यूरोपीय देशों को बेचकर दुगना मुनाफा कमाते थे। भारतीय मसालों के दीवाने मुंहमांगी कीमत देने को तैयार रहते थे। इसका कारण यह था कि ये मसाले मध्य एशिया और यूरोप में न केवल भोजन का स्वाद दोगुना कर देते थे, बल्कि उनकी अमीरी के प्रदर्शन का भी एक साधन बन जाते थे। उन दिनों भारतीय मसालों का उपयोग कर पाना केवल अमीरों और राजाओं-महाराजाओं के वश की ही बात थी।
भारत की खोज भी पुर्तगाली नागरिक वास्को डि गामा ने सिर्फ मसालों के लिए ही की थी क्योंकि यूरोपीय देशों में यह बात खुल गई थी कि मध्य एशियाई देश किसी इंडिया यानी भारत नाम के देश से मसाले खरीदकर हमें बेचते हैं। तब यूरोपीय देश मसालों और कपड़ों को रंगने में काम आने वाले नील को सीधे भारत व्यापारियों से खरीदने की मंशा से भारत पहुंचने का मार्ग खोज रहे थे क्योंकि तब सालोमन शासकों ने यूरोपीय देशों और भारतीय व्यापारियों को अपने क्षेत्र से गुजरने पर प्रतिबंध लगा रखा था। ऐसे गौरवमयी इतिहास वाले देश भारत के मसालों को अब मिलावटी बताकर दुनिया भर के देश वापस लौटा रहे हैं। जिन भारतीय मसालों की कभी एशिया और यूरोप में धूम मची हुई थी, उसी भारत के मसालों को मिलावटी बताकर वापस करना,एक शर्मनाक बात है।
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कुछ दिन पहले हांगकांग, सिंगापुर और नेपाल ने दो बड़े भारतीय ब्रांड के मसालों में कीटनाशक एथिलीन आक्साइड होने की आशंका जताकर अपने यहां बिक्री पर रोक लगा दी है। ब्रिटेन ने भी भारतीय मसालों की ब्रिकी पर प्रतिबंध लगाने की बात कही है। कुछ साल पहले हमारे देश से जाने वाले गेहूं और चावल में अधिक मात्रा में कीटनााशक होने का आरोप लगाकर कई देश वापस कर चुके हैं। तुर्किये जैसा देश हमारे देश की प्रसिद्ध चायपत्ती को खरीदने से इनकार कर चुका है। अमेरिका ही कई बार हमारे देश से जाने वाली कई खेप को वापस लौटा चुका है। यूरोपियन यूनियन के देश हमारे देश के लगभग पांच सौ उत्पादों में मिलावट की बात कहकर लौटा चुका है।
हमारे देश में इन मसालों की जांच के लिए जितने लैब की जरूरत है, उससे कहीं कम ही मौजूद हैं। जो प्रयोगशालाएं हैं, उन पर इतना दबाव है कि वे ठीक से निर्यात होने वाली खाद्य सामग्री को ठीक से चेक नहीं कर पाती हैं। नतीजा यह होता है कि मसाला उत्पादक कंपनियां लाभ कमाने के चक्कर में मिलावटी सामान यूरोपिय यूनियन के देशों में बेचने लगते हैं। इससे इन देशों से हमारा संबंध तो प्रभावित होता ही है, भारतीय उत्पादों की छवि को भी बट्टा लगता है। भारतीय बाजार की साख गिरती है।
-संजय मग्गू
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