महाराष्ट्र के संत नामदेव ने जीवन भर प्रभु भक्ति और समता का प्रचार किया। वह अपने समय के प्रसिद्ध संत ज्ञानेश्वर के साथ उत्तर भारत में आए थे। कहा जाता है कि उन्होंने कई साल तक पंजाब में भी बिताए थे। संत ज्ञानेश्वर अपने समकालीन संत नामदेव से पांच साल बड़े थे। संत नामदेव ने मराठी के साथ-साथ हिंदी में भी रचनाएं की थीं। सिख धर्म की सबसे पवित्र पुस्तक गुरु ग्रंथ साहिब में संत नामदेव की रचनाएं शामिल की गई हैं। संत नामदेव ने किसी भी प्रकार भेदभाव न करने की बात कही है। यही वजह है कि वे महाराष्ट्र से लेकर पंजाब और हिंदी भाषी प्रदेशों में भी पढ़े और पूजे जाते हैं। उनके बचपन की एक कथा है। एक बार की बात है।
उनकी मां गोणाई देवी को किसी दवा के लिए एक पेड़ की छाल की जरूरत थी। उन्होंने अपने पुत्र नामदेव से उस पेड़ की छाल लाने को कहा। नामदेव बचपन से आध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे। उनका मन ईश्वर भक्ति में बहुत लगता था। मां का आदेश मिलने पर उन्होंने चाकू उठाया और चल दिए। घर से थोड़ी दूर पर लगे उस पेड़ की छाल उतारी और घर की ओर लौटने लगे। वह अभी घर के आधे रास्ते में थे कि उन्हें एक साधु मिला। वह उन्हें पहचानता था।
उस साधु ने पूछा, कहां गए थे नामदेव। नामदेव ने कहा कि मां ने पेड़ की छाल मंगाई थी, वही लेने गया था। उस संत ने कहा कि क्या तुम्हें मालूम है कि पेड़ में भी जान होती है। वैद्य जब पेड़ की फूल,पत्ती याछाल लेते हैं, तो पेड़ से हाथ जोड़कर क्षमा मांगते हैं। छाल उतारने पर पेड़ को कितना दर्द हुआ होगा, जानते हो? यह सुनकर नामदेव घर लौट आए और उसी चाकू से अपने पैर की खाल उतारने लगे। खून देखकर उनकी मां ने पूछा, यह क्या कर रहे हो। तब नामदेव ने सारी बात बताई।
-अशोक मिश्र
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