पूरा उत्तर भारत तप रहा है। यह तपन जलवायु परिवर्तन के कारण है। इस तपन के कारण मानव क्षति भी हो रही है और आर्थिक क्षति भी। इसके कारण कितने लोगों की जान गई, कितने अरब रुपये का नुकसान हुआ, भारत में इसका कोई आकलन नहीं हो रहा है। पहली बात तो यह है कि हमारे देश में सबसे पहले सरकारी मशीनरी प्रचंड गर्मी या किसी विपदा के कारण हुई मौत को नकारने का प्रयास करता है। सरकार को मुआवजा जो देना पड़ सकता है। ब्रिटेन स्थित गैर सरकारी संगठन क्रिश्चियन एड की रिपोर्ट बताती है कि इस साल पिछले छह महीनों में जलवायु परिवर्तन के कारण पड़ी गर्मी में ढाई हजार लोगों की मौत हो चुकी है। इसके कारण 41 बिलियन डॉलर यानी 3.43 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हो चुका है। एक आंकड़ा बताता है कि अब तक म्यांमार जैसे छोटे से देश में डेढ़ हजार लोगों की प्रचंड गर्मी के कारण मौत हो चुकी है। ऐसी स्थिति में भारत में होने वाली मौतों का अंदाजा लगाया जा सकता है।
वैसे भी गर्मी के कारण हुई मौत को रजिस्टर पर दर्ज कम ही किया जाता है। जलवायु परिवर्तन के कारण पैदा हुई गर्मी और इस गर्मी के चलते हुए मौतों के लिए कौन जिम्मेदार है? निश्चित रूप से वे लोग जो हर साल कॉप बैठक के नाम पर किसी न किसी देश में जुटते हैं और किसी पिकनिक पार्टी की तरह खा-पीकर अपने-अपने देश लौट जाते हैं। क्रिश्चियन एड ने आंकड़ा जारी किया है, वह पिछले साल दिसंबर में दुबई में हुई कॉप यानी कांफ्रेंस आॅफ पार्टीज की बैठक के बाद का। अब तक कॉप की बैठक के नाम पर दुनिया भर के चौधरी देश मिल बैठकर जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने के लिए नीतियां बनाने के बड़े-बड़े वायदे 28 बार कर चुके हैं। लेकिन नतीजा सिफर। कुछ नहीं हुआ इन कॉप की कथित बैठकों में। ग्रीन हाउस गैसों के सबसे बड़े उत्सर्जक धनी देश यानी अमेरिका, रूस, चीन, जापान, फ्रांस आदि एक भी दमड़ी खर्च करना नहीं चाहते हैं।
कुछ साल पहले गरीब और अविकसित देशों को जो फंड मुहैया कराने की बात तय हुई थी, उस फंड को मुहैया कराने में भी आनाकानी की जा रही है। विकसित देशों की मंशा है कि पूरी दुनिया में उन्होंने जो ग्रीन हाउस गैसों के रूप में मौत बांटी है जिसकी वजह से जलवायु में बदलाव आ रहा है, धरती गर्म हो रही है, उसको ठंडा करने के लिए अविकसित देश आगे आएं, जीवाश्म ईंधन का बिल्कुल उपयोग न करें। इस मद में जितना भी खर्च आता है, वे खुद वहन करें। और वे, हर साल कॉप समिट के नाम पर भिन्न-भिन्न देशों होकर पार्टियां करें और अपने घर लौट जाएं। वैज्ञानिकों का कहना है कि बस दो-चार साल ही बचे हैं, यदि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए बड़े पैमाने पर काम नहीं किया गया, तो हालात बेकाबू हो जाएंगे और फिर दुनिया में जो विनाश होगा, उसकी कल्पना करके ही रोंगटे खड़े हो जाएंगे। अमीर देशों! चेत जाओ, अभी समय है, नहीं तो पछताने का मौका भी नहीं मिलेगा।
-संजय मग्गू
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