आखिरकार बिलकिस बानो ने सोमवार यानी 8 जनवरी को नया साल मना ही लिया। सुप्रीमकोर्ट के फैसले ने एक बात तो साबित कर दी कि आदमी में अगर हौसला और लड़ने का जज्बा हो, तो वह असंभव को भी संभव बना सकता है। दरअसल, बिलकिस बानो की वर्तमान लड़ाई किसी संस्था या व्यक्ति के खिलाफ नहीं थी, बल्कि गुजरात के नागरिकों द्वारा चुनी गई एक लोकतांत्रिक कही जाने वाली सरकार से थी।
बानो के साथ बलात्कार करने और उनके परिजनों की हत्या में शामिल रहे 11 लोगों को रिहा करने का फैसला लोकतांत्रिक सरकार ने लिया था। यह कोई साधारण लड़ाई नहीं थी। दोषियों को रिहा करने के पीछे का एक कारण सुप्रीमकोर्ट का ही एक फैसला था। सुप्रीमकोर्ट ने अपनी गलती को सुधारते हुए उस फैसले को रद कर दिया है। सोमवार का दिन इस देश की दबी-कुचली, शोषित-पीड़ित महिलाओं के लिए एक नया संदेश लेकर आया था।
सुप्रीमकोर्ट के फैसले ने इस देश की न जाने कितनी पीड़ित महिलाओं के दिल में अपने साथ हुए जुल्म के खिलाफ लड़ने का हौसला पैदा किया है। बिलकिस बानो मामले में सुप्रीमकोर्ट के फैसले ने यह साबित कर दिया है कि न्याय के आगे सबको झुकना पड़ता है। सुप्रीमकोर्ट ने अगर अतीत में कोई गलत फैसला किया है, तो वह उसे सुधारने का भी हौसला और जज्बा रखता है, यह सोमवार को हुए फैसले से साबित हो गया।
इस मामले में सबसे दुखद पहलू यह रहा कि जब दोषी रिहा किए गए थे, तो कुछ संस्थाओं और लोगों ने इन दोषियों का फूल-माला पहनाकर और मिठाई खिलाकर स्वागत किया था। ऐसा करना, न केवल इस लोकतांत्रिक व्यवस्था पर बल्कि इंसानियत के नाम पर एक करारा तमाचा था। पंद्रह दिन के अंदर दोबारा जेल जाने वाले लोग कोई मासूम या निरपराध नहीं थे। इन्होंने एक पांच महीने की गर्भवती महिला के साथ न केवल दुराचार किया था, बल्कि उसके परिजनों की हत्या में भी शामिल रहे थे।
वर्ष 2002 में हुआ गुजरात दंगा देश के इतिहास में हमेशा खटकता रहेगा। दंगे से पहले मिल जुलकर रहने वाले दो संप्रदायों के लोगों ने इंसानियत को तार-तार कर दिया था। दंगे से पहले विश्वसनीय पड़ोसी और आपसी रिश्तों में बंधे लोगों ने सांप्रदायिक सौहार्द को क्षत-विक्षत कर दिया था। नतीजा यह हुआ था कि दोनों पक्ष के लोगों ने एक दूसरे को उस घटना के बाद अविश्वास से देखना शुरू कर दिया।
दंगे के बाद दोनों संप्रदायों के बीच जो घाव लगा, वह आज भी पूरा नहीं भरा है। उसकी कसक घटना के बीस-बाइस साल बाद भी रह-रहकर उठती है। बिलकिस बानो को न्याय दिलाने में भी किसी पुरुष ने साथ नहीं दिया, आगे आईं रेवती लाल, रूपरेखा वर्मा और सुभाषिनी अली। इन लोगों की भले ही कोई विचारधारा रही हो, लेकिन किसी महिला के लिए खड़ी होना और उसे न्याय दिलाना, बहुत बड़ी बात है। देश की शोषित-पीड़ित महिलाओं को इन्होंने कम से कम यह विश्वास तो दिला ही दिया है कि वे अन्याय के खिलाफ लड़ाई में अकेली नहीं हैं।
-संजय मग्गू