बुजुर्ग अक्सर कहते हैं कि जीवन साथी चाहे जैसा मिले, उसके साथ हंस-बोलकर, रो-गाकर जिंदगी काट देना चाहिए। जोड़ियां ऊपर वाला बनाता है, निभाना तुम्हारे हाथों में है। अब भी बहुत से लोग बुजुर्गों द्वारा तय किए रास्ते पर चल रहे हैं। लेकिन, समाज जिस तेजी से बदल रहा है, उसी गति से रिश्तों के मायने भी बदल रहे हैं। श्रद्धा-आफताब और निक्की-साहिल के बाद अब सरस्वती-मनोज की प्रेम कहानी हमारे सामने है। यह कोई नई बात नहीं है। दशकों पहले देश सुशील-नैना की कहानी से बावस्ता हो चुका है। लेकिन, उस दर्दनाक कहानी के पीछे वजह अलग थी। और, इन तीनों ताजी कहानियों की वजह अलग है। यह यूज एंड थ्रो कल्चर वाला जमाना है।
मशहूर शायर अतीक फतेहपुरी यूं नहीं कहते, रात-दिन दावा जो करते हैं जुनून-ए-इश्क का, सबके सब वे होश में हैं, कोई दीवाना नहीं। वाकई अब किसी के अंदर किसी के लिए कोई दीवानगी नहीं दिखती। आप जरा खुद सोचिए, कोई अगर किसी से मुहब्बत करता हो, तो क्या वह उसके दर्जनों टुकड़े करके फ्रिज में ठूंस देगा! मिक्सी में फेंटकर कुत्तों को खिला देगा! चाहने वाला तो ऐसा कतई नहीं कर सकता। किसी भी सूरत में नहीं! आफताब, साहिल एवं मनोज आशिक कम, जालिम ज्यादा निकले।
दरअसल, बिना विवाह किए किसी के साथ रहने का जो नया लाइफ कॉन्सेप्ट ईजाद हुआ है, यह हमारी सामाजिक व्यवस्था के अनुकूल नहीं है, क्योंकि इस राह पर चलने के लिए जिस मानसिक स्तर की जरूरत होती है, वह नई पीढ़ी के भारतीयों में बहुत कम पाया जाता है। विडंबना यह है कि हम पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति से उठा तो बहुत कुछ लेते हैं, लेकिन उसकी मूल भावना से खुद को ईमानदारी के साथ जोड़ नहीं पाते। यही वजह है कि हम श्रद्धा-आफताब, निक्की-साहिल और सरस्वती-मनोज जैसी प्रेम कहानियों का दर्दनाक अंजाम देख रहे हैं।
जल्द से जल्द और बिना सही रास्ता अख्तियार किए सब कुछ हासिल कर लेने की चाह के चलते हमारी युवा पीढ़ी दिनोंदिन पथभ्रष्ट होती जा रही है, वह खुद को जबरन गुमराही के रास्ते पर धकेल रही है। यह समाज के चेत जाने का वक्त है, वरना बहुत देर हो जाएगी।