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23 जून की बैठक तय करेगी विपक्षी एकता का भविष्य

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विपक्षी एकता के लिए विभिन्न विपक्षी दलों का जमावड़ा नीतीश कुमार की अगुवाई में 12 जून को पटना में होते होते रह गया। अब यह बैठक 23 जून को होगी। 12 जून को पटना में होने वाली बैठक के लिए सभी दलों की सहमति थी, पर राहुल गांधी का अमेरिकी दौरा और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे की ना नुकुर ने विपक्षी एकता की बैठक को खतरे में डाल दिया था। अब नीतीश कुमार एक बार नए सिरे से विपक्षी एकता की कोशिश कर रहे हैं। जिसमें वे सफल भी दिखाई दे रहे हैं। 2024 का लोकसभा चुनाव सिर पर है। ऐसे में अगर सभी विपक्षी दल एक होकर भाजपा और मोदी को टक्कर देंगे, तो भाजपा के लिए परेशानी हो सकती है। इसका इशारा आरएसएस ने भी किया है। वैसे विपक्षी एकता में लगातार चुनौतियां दिख रही हैं। क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय दलों के साथ चुनाव लड़कर अपना अस्तित्व बचाने की फिक्र में हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी किसी दूसरे दल को पश्चिम बंगाल में घुसपैठ करने देने के बारे में बहुत सतर्क हैं। वह कांग्रेस, वामपंथी दलों के साथ सीटों का बंटवारा न करने का संकल्प ले चुकी हैं।

ममता बनर्जी सीपीएम, सीपीआई, कांग्रेस के साथ पश्चिम बंगाल में कोई गठबंधन नहीं चाहती हैं। वह अकेले ही भाजपा से टक्कर लेना चाहती हैं। उनके अनुसार वह विपक्ष की नेता बनने की हर योग्यता रखती हैं। दिक्कत यह है कि विपक्ष का कोई बड़ा नेता ममता बनर्जी के नाम पर सहमत नहीं है। ममता बनर्जी को यह बात सालती है कि विपक्षी एकता की सब बात करते हैं, पर कोई ममता बनर्जी के नाम पर मुहर नहीं लगा रहा है। विपक्षी एकता पर आशान्वित नीतीश कुमार को विपक्षी दलों द्वारा बार-बार दिए जा रहे झटकों ने चिन्ता में डाल दिया है। आम चुनाव से पहले विपक्षी दलों को एक करने की कवायद जितनी तेजी से शुरू होती है, उसी स्पीड से हर कोशिश दरकती चली जाती है।

विपक्षी एकता के रास्ते में अभी और अड़चनें आएंगी। नीतीश कुमार अपनी मुहिम में कामयाब होंगे, ऐसा उनका विश्वास है। विपक्षी एकता में सबसे बड़ी बाधा विभिन्न दलों के नेताओं का अहम है। सभी दल के लोग विपक्षी एकता से ज्यादा अपना-अपना भविष्य देख रहे हैं। कुछ दलों को गठबंधन करने पर अपना अस्तित्व ही संकट में लग रहा है। शुरू से ही ये दल एक दूसरे को नीचा दिखाते रहे हैं। गठबंधन करके लड़ने पर दल ही दलदल में न समा जाए, ऐसी चिंता छोटे दलों को खाए जा रही है। विपक्षी दलों के साथ सबसे बड़ी विडम्बना है कि यह दल एक दूसरे पर भरोसा नहीं कर रहे हैं। नीतीश कुमार जिस उत्साह से विपक्ष को एकजुट करने को आगे आए हैं, वह कहीं से कम होती नहीं दिख रही है।  

अब तो राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी 23 जून को होने वाली बैठक में भाग लेने पर सहमति जता दी है। कांग्रेस के इस फैसले ने विपक्षी एकता की कोशिशों में एक नया उत्साह पैदा कर दिया है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी विपक्षी एकता को लेकर उत्साहित हैं क्योंकि केंद्र सरकार द्वारा लाए गए अध्यादेश पर भाजपा विरोधी दलों का समर्थन चाहिए। वह तो विपक्षी दलों के साथ बैठक तक करने लगे हैं। यही स्थिति अन्य राजनीतिक दलों के साथ है। केंद्र सरकार गैर भाजपा शासित राज्यों को परेशान करने के लिए अपने मुताबिक अध्यादेश ला सकती है। इसलिए सभी एकजुट होने की कोशिश कर रहे हैं।

बसपा प्रमुख मायावती, ओडिसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, आन्ध्र प्रदेश के चन्द्रबाबू नायडू सहित तमाम नेताओं को विपक्षी एकता से कुछ लेना देना नहीं है। वह अपनी पार्टी को मजबूत करने में लगे हैं। इनका झुकाव एनडीए की तरफ क्यों है, इसके बारे में कुछ बताने की जरूरत नहीं है। उधर केसीआर, स्टालिन, उद्धव ठाकरे, शरद पवार, फारुक अब्दुल्ला, अखिलेश यादव का भी झुकाव विपक्षी एकता की ओर दिख रहा है। यदि विपक्षी एकता कायम हो जाती है, तो भाजपा सरकार के लिए गंभीर संकट खड़ा हो सकता है। नीतीश कुमार विपक्षी एकता के लिए गंभीर प्रयास कर रहे हैं। यह गंभीरता कुछ-कुछ दलों में दिखने  लगी है। यदि सबने अपना अहंकार नहीं त्यागा, तो फिर वही टांय टांय फिस्स होने की नौबत होगी। चुनाव बहुत करीब हैं, विपक्षी एकता कोशिश भरपूर हो रही है। अब देखना यह है कि 23 जून को पटना में क्या होता है। धीरे धीरे समय निकलता जा रहा है। कहीं ये चुनाव तक बैठक ही न करते रह जाएं

अंशुमान खरे

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