संजय मग्गू
आदमी की मौलिक आवश्यकता क्या है? खाने के लिए रोटी, पहनने के लिए कपड़ा और सिर छिपाने के लिए एक मकान। बस, इतना ही न। लेकिन यदि एक आदमी की आय और व्यय पर बारीक नजर डालें, तो पता चलता है कि हम अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा उन वस्तुओं पर खर्च कर रहे हैं, जो हमारी मूलभूत आवश्यकताओं में आता ही नहीं है। सबसे कम खर्च आजकल आदमी रोटी पर करता है। बाजारवादी व्यवस्था ने हमारे इर्द-गिर्द एक ऐसा जाल बुन दिया है जिसमें लिपटकर हम असहाय छटपटा रहे हैं और कुछ कर भी नहीं सकते हैं। अरे, आपकी हाइट छोटी है, तो फलां कंपनी की सुपर डाइट का उपयोग करें, हाइट एकदम अमिताभ बच्चन की तरह हो जाएगी। फलां क्रीम लगा लीजिए, एकदम गोरी हो जाएंगी। क्या कोई क्रीम लगाने से किसी की त्वचा गोरी हुई है? प्रकृति ने जो रंग दे दिया, उसको बदलने की कोशिश में आदमी और औरत न जाने क्या-क्या करते हैं। न जाने कैसी-कैसी क्रीम और लोशन खरीदते हैं। सुबह से शाम तक कई बार चेहरे से लेकर शरीर के विभिन्न हिस्सों में मलते हैं, लेकिन क्या सचमुच इन लोशनों और क्रीम्स से गोरा हुआ जा सका है आज तक। आप कोई भी अखबार, पत्र-पत्रिका खोल लीजिए या कोई भी टीवी चैनल आॅन कीजिए, सब पर एक मायाजाल दिखेगा। मूड फ्रेश करना है, तो फलां चॉकलेट खाइए। जिस आदमी को अपने बच्चे की फीस देनी हो, बेटी के विवाह का कोई जुगाड़ न बन पा रहा हो, क्या चाकलेट खाने से उसका मूड ठीक हो जाएगा। वह खुशी से नाचने लगेगा? आप बाजार जाइए, पूरा बाजार सौंदर्य प्रसाधनों से अटा पड़ा है। सुंदर दिखने के लिए ऐसे-ऐसे कपड़े बाजार में दिखेंगे कि आप ताज्जुब करेंगे। फैशन के नाम पर ढकने की जगह दिखाने का चलन बढ़ता जा रहा है। कपड़ों का आविष्कार सिर्फ इसलिए हुआ था ताकि इंसान अपने अंगों को ढक सके। सर्दी-गर्मी से बचाव हो सके। लेकिन आज जो फैशन के नाम पर परोसा जा रहा है, वह सर्दी या गर्मी से बचाव करता है? लेकिन आमदनी का एक बड़ा हिस्सा इन्हीं सब पर खर्च हो रहा है। मैं नहीं कहता कि अच्छे कपड़े न पहने जाएं, लेकिन वे चीजें जो एक विशेष लक्ष्य को तय करके बेची जा रही हैं, जो हमारी मूलभूत आवश्यकताओं में नहीं आती है, उस पर पैसा लुटाने का कोई मतलब नहीं है। यदि आप अपनी आय को अपने खाने-पीने, आवास की व्यवस्था करने और सामान्य रूप से तन को ढकने वाले कपड़ों पर करें। बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलाने करें तो शायद बच्चे के भविष्य के लिए अच्छा होगा। यदि हम शिक्षा और स्वास्थ्य को भी मौलिक आवश्यकताओं में जोड़ लें तो कुल पांच आवश्यकताओं से इतर होने वाले खर्च के बिना रहा जा सकता है। लेकिन बाजार ने हमारे सामने जो इंद्रजाल फैला रखा है, उसमें फंसने के बाद अक्सर लोगों को यह कहते हुए सुना जा सकता है कि क्या करें, इतने पैसे ही नहीं बचते हैं कि अपने बेटे या बेटी को किसी अच्छे स्कूल में पढ़ा सकें। लेकिन यदि सभी ऐसा ही सोच लें, तो फिर बाजार का क्या होगा? इससे बाजार पर तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन बाजारवाद जरूर संकट में आ जाएगा।
क्या कोई क्रीम या लोशन सचमुच गोरा बना सकती है?
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