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स्वामी सहजानंद सरस्वती : जिन्होंने देश के किसानों को  किया जाग्रत

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हमारे समाज में इन दिनों अनेक साधु-संत और स्वामियों की भरमार हो चुकी है, इसलिए हो सकता है नई पीढ़ी के कुछ लोग स्वामी सहजानंद सरस्वती के नाम और  काम से परिचित न हों। स्वामी जी सौ फीसदी संत थे। वे हाथ में एक दंड लिए  रहते थे इसलिए उनको दण्डी स्वामी भी कहा जाता था। वे आजादी की लड़ाई में भी सक्रिय थे। किसानों के अधिकारों के लिए आंदोलन भी कर रहे थे। भारत में अगर किसान आंदोलनों की शुरुआत का श्रेय किसी को जाता है, तो स्वामी जी को ही जाता है। स्वामी का जन्म 22  फरवरी, 1889 को महाशिवरात्रि के दिन गाजीपुर के भूमिहार ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनका महाप्रयाण पटना में हुआ 26 जून, 1950 को। मात्र 61  साल की आयु मिली उनको। अपने प्रारम्भिक जीवन से ही वे आजादी की लड़ाई में शामिल होने लगे थे।

उनके वैरागी स्वभाव को देखकर घरवालों ने  सोलह साल की उम्र में उनका विवाह कर दिया था, लेकिन एक वर्ष के बाद उनकी पत्नी का निधन हो गया। जब घरवालों ने  दोबारा विवाह की योजना बनाई, तो उन्होंने महाशिवरात्रि के दिन ही घर त्याग दिया और वाराणसी पहुँच कर स्वामी अच्युतानंद से दीक्षा प्राप्त करके संन्यासी जीवन को स्थायी रूप से आत्मसात कर लिया। एक वर्ष तक भारत के तीर्थ स्थलों का भ्रमण भी किया। वापस लौट कर फिर वाराणसी आए और दण्डी स्वामी अद्वैतानन्द सरस्वती से दीक्षा ली। स्वामी जी ने उनको दंड समर्पित किया, तब से वे दण्डी स्वामी के रूप में विख्यात हो गए।

संन्यासी होकर वे धूनी रमाए नहीं बैठे रहे। वे ब्राह्मण समाज में समुचित सुधार का कार्य करते हुए किसानों की स्थिति पर भी ध्यान दिया। उन्होंने जब भारतीय किसानों की दुर्दशा देखी तो जीवन का एक बड़ा हिस्सा किसानों को समर्पित कर दिया। किसानों के शोषण के विरुद्ध उनको जाग्रत किया। बिहार से लेकर बंगाल तक होने वाले किसान सम्मेलनों में आपकी महत्वपूर्ण भगीदारी रही। सन 1936 में उन्होंने अखिल भारतीय किसान सभा का गठन किया। उसके बाद देश भर के किसान अपने अधिकारों के लिए जागरूक हुए। गाँधी जी ने खादी  का प्रचार किया तो आपने भी बिहार के सिमरी गाँव में खादी वस्त्रों के उत्पादन का बड़ा केंद्र विकसित करवाया।  ‘हुंकार’ समाचार पत्र के माध्यम से उन्होंने शोषित-पीड़ित मानवता को स्वर देने का काम किया। एक तरह से वे विद्रोही संन्यासी थे। प्रखर राष्ट्रवादी भी थे।

 उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार तक उनकी सामाजिक सक्रियता बनी रही। महात्मा गाँधी से लेकर नेताजी सुभाषचंद्र बोस तक से उनका सम्पर्क था। एक पत्रकार के रूप में भी हम उनको याद कर सकते हैं। उन्होंने अपने जीवन में हुंकार के अलावा, भूमिहार ब्राह्मण पत्र का प्रकाशन किया। उन्होंने कुछ ग्रंथों का सम्पादन भी किया। कुछ पत्रों में वे निरंतर लिखते भी रहे। ‘कर्मकलाप’ नामक एक पुस्तक भी उन्होंने लिखी थी जिसमें ब्राह्मणों के जीवन और उनके कर्मों को बताने वाली बातें हैं। यह ग्रंथ 1200 पृष्ठों का है। उन्होंने कुछ और वैचारिक पुस्तकें भी लिखीं जिनमे किसान क्या करें, मेरा जीवन संघर्ष, ब्राह्मण समाज की स्थिति, क्रांति और संयुक्त मोर्चा, किसान कैसे लड़ते हैं, झूठा भी, मिथ्या अभिमान उल्लेखनीय है। लेकिन उनकी एक महान कृति इन सबसे आगे है, जिसका  नाम है ‘गीता हृदय।’ इसमें उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशों की अति सुंदर व्याख्या की है।  नई पीढ़ी को समय निकाल कर इसे पढ़ना चाहिए।  गाँधी के आह्वान पर स्वामी नमक सत्याग्रह  में शामिल हुए तो उन्हें गिरफ्तार कर हजारीबाग जेल भेज दिया गया। वहां  छह माह के कारावास के दौरान ‘गीता हृदय’ की रचना की थी। स्वामी एक नहीं अनेक बार जेल गए।

और जब -जब जेल गए, उन्होंने समय का सदुपयोग किया और मानव कल्याण के लिए उत्तम ग्रंथो का प्रणयन किया।  1940  में नेताजी के नेतृत्व में बिहार के रामगढ़  में एक व्यापक सम्मेलन हुआ था, उसमे स्वामी जी ने अंग्रेज सरकार के विरुद्ध ऐतिहासिक भाषण दिया था, जिससे बौखला आकर अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें तीन साल के लिए कैद में भेज दिया था। इस दौरान स्वामी जी ने कुछ पुस्तकों की रचना की। जेल जाने पहले और जेल जाने के बाद स्वामी जी  या तो अंग्रेजों  के खिलाफ मुखर रहे या फिर किसानों के लिए आंदोलन करते  रहे। कांग्रेस से उनका मोहभंग हुआ तो वे साम्यवाद की और झुके। 26  जून 1950  को वे अचानक बीमार पड़े और उसी रात उनका निधन हो गया।

गिरीश पंकज

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