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प्रेम जीतने नहीं हारने का नाम

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प्रेम दुनिया की सबसे पवित्रतम भावना। प्रेम मरना या मारना नहीं, बल्कि जीना सिखाता है। प्रेम में डूबे प्रेमी युगल को गौर से देखिए। कितनी पवित्रता, कितनी निश्छलता, कितना विश्वास होता है दोनों के चेहरे और आंखों में। चेहरे की चमकीली कांति और प्रेम रस में डूबी आंखें सुध-बुध खोने पर मजबूर कर देती हैं। प्रेम में जीतना नहीं होता है। हारना होता है। सब कुछ हारकर ही प्रेम को हासिल किया जा सकता है। लेकिन मर्द जीतना चाहता है। उसे पता ही नहीं होता है कि सब कुछ हार ही सच्चे प्रेम को पाया जा सकता है। बलिदान करना होता है। अपने अहम का, अपने स्वार्थ का, अपनी वासना का, अपनी लोलुपता का। कबीरदास जी भी कह गए हैं-कबीर यहु घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं। सीस उतारे हाथ धरि, सो पैठे घर मांहि। इतना आसान नहीं है प्रेम करना। दुनिया और समाज से लड़ना पड़ता है। शीश कटाकर भी यदि प्रेम हासिल हो जाए, तो समझो प्रेम बहुत सस्ते में हासिल हो गया। लेकिन आज हो क्या रहा है।

प्रेम में शरीर के टुकड़े-टुकड़े किए जा रहे हैं। हत्या की जा रही है। शरीर की भी और प्रेम की भी। प्रेम का यह कैसा रूप है? लिव-इन यानी सह जीवन में रहने वाली लड़कियों की हत्याओं का लगता है, एक दौर शुरू हो गया है। किसका-किसका नाम गिनाऊं। नाम को लेकर भी तो राजनीति शुरू हो जाती है। दरअसल, विडंबना यह है कि हमारे साधु-संत से लेकर महापुरुषों के सामने यही विडंबना रही कि साकार या निराकार। पश्चिम में तो प्लेटोनिक लव का कांसेप्ट तक प्रचलित हुआ। साधु-संतों और महापुरुषों का प्रेम लौकिक नहीं, अलौकिक था। उनके प्रेम का साध्य प्रेमी या प्रेमिका नहीं, उनके आराध्य हुआ करते थे, अब भी होते हैं।

यह सही है कि निराकार प्रेम कर पाना बहुत कठिन है। इसलिए साकार की जरूरत होती है। अब शरीर है, तो प्रेम में शरीर की भागीदारी होगी ही। बिना शरीर के प्रेम की बात सिर्फ कोरी कल्पना ही कही जाएगी। लिव-इन रिलेशन हो, मां-बाप की सहमति से हो या न हो, जहां भी प्रेम होगा, हमेशा उसकी शुरुआत पुरुष शरीर से करता है। शरीर की एक अनिवार्य भूमिका तो प्रेम में हो सकती है, लेकिन शरीर ही सब कुछ नहीं हो सकता है। फिर प्रेम और हवस में अंतर ही क्या रहा? आज कल जितने भी मामले सामने आ रहे हैं, उनमें सत्तर से अस्सी फीसदी मामले हवस के ही होते हैं। प्रेम कई बार एकपक्षीय ही दिखाई पड़ता है। ऐसे मामले बहुतायत में देखने को मिलता है कि लड़की तो सचमुच प्रेम में पागल होती है, लेकिन लड़का या मर्द शरीर को पहले देखता है। मर्द शरीर को जीतने में विश्वास करता है। यह उसकी आदिम प्रवृत्ति है।

जब तक मर्द अपना मर्दानापन नहीं त्यागता, तब तक वह सच्चा प्रेम कर ही नहीं सकता। लैला-मजनूं, हीर-रांझा, शीरी-फरहाद जैसे तमाम अमर प्रेमियों की गाथाएं  उठाकर पढ़ लीजिए। सच्चे प्रेमियों ने अपने मर्दानापन को मारकर प्रेम किया, तो उनका प्रेम अमर हुआ। आज यदि हमें सच्चा प्रेम पाना है, तो हमें अपने मर्दानेपन और जीतने की प्रवृत्ति से छुटकारा पाना होगा। यदि ऐसा नहीं हुआ, तो न जाने कितनी प्रेमिकाएं इसकी बलिवेदी पर कुरबान होती रहेंगी।

संजय मग्गू

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