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आखिरी दिन नियम क्यों तोड़ दूं?

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भारत ने अपनी आजादी की भरपूर कीमत चुकाई है। हजारों मांओं,बहनों, बेटियों और औरतों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर किया है। अगर स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास को पढ़ें, तो आश्चर्य होता है कि हमारे देश के रणबांकुरों ने अपना बलिदान किस तरह हंसते-हंसते दिया था। किसी को भी अपने प्राण न्यौछावर करते समय कोई पछतावा नहीं, कोई भय या संकोच नहीं था। राजेंद्र नाथ लाहिड़ी के बारे में एक बहुत ही मजेदार किस्सा बताया जाता है।

यह किस्सा उनकी बहादुरी और निडरता को भी दर्शाता है। कहा जाता है कि काकोरी षड्यंत्र केस के आरोपी राजेंद्र नाथ लाहिड़ी को मार्क्सवादी साहित्य पढ़ने और कसरत करने का बहुत शौक था। वे जब भी मौका मिलता, वे पढ़ते मिलते थे। छह अप्रैल 1927 को उन्हें काकोरी षड्यंत्र केस में फांसी की सजा सुनाई गई थी। सजा सुनने के बाद भी उनके चेहरे पर तनिक भी विचलन नहीं दिखा। वे हमेशा की तरह निर्विकार भाव से खड़े होकर अपने केस का फैसला सुनते रहे।

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लोगों ने पूछा, तो उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा कि मुझे अपनी कोई चिंता नहीं है। मेरा क्या है? दो-तीन महीने में मुक्ति पा जाऊंगा। मुझे चिंता उन लोगों की है, जो बीस-पच्चीस साल तक जेल में रहेंगे। वे किस तरह निर्दयी ब्रिटिश हुकूमत की तमाम यातनाओं को सहेंगे। फांसी का दिन 17 दिसंबर 1927 तय किया गया था। हमेशा की तरह उस दिन भी राजेंद्र नाथ लाहिड़ी सुबह ही उठ गए। रोज की तरह उन्होंने पूजा की और कसरत करने लगे। यह देखकर जेलर को आश्चर्य हुआ। उसने यह बात अंग्रेज जज को बताई, तो जज ने पूछा कि प्रार्थन की बात तो समझ में आती है, लेकिन कसरत की बात समझ में नहीं आती है। लाहिड़ी ने जवाब दिया कि कसरत करना मेरा रोज का नियम है। फिर भला आखिरी दिन नियम क्यों तोड़ दूं।

Ashok Mishra

-अशोेक मिश्र

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