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बेहतर है इंडिया गठबंधन से किनारा कर ले कांग्रेस

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अशोक मिश्र
इंडिया गठबंधन के सहयोगी दलों में नेतृत्व को लेकर रार मची हुई है। सबसे पहले नेतृत्व को लेकर टीएमसी की ममता बनर्जी ने सवाल उठाए और खुद नेतृत्व करने की मंशा जाहिर की। फिर महाराष्ट्र में सपा ने हामी भरी, उसके बाद शरद पवार भी छटपटा उठे और बाहर आने को तैयार दिखाई दे रहे हैं। संभव है कि एकाध दिन में शिवसेना यूबीटी भी इंडिया गठबंधन से बाहर का रास्ता देखे। अरविंद केजरीवाल पहले ही एकला चलो की राह पर हैं। ऐसे में सवाल यह है कि क्या सिर्फ 18 महीने ही इंडिया गठबंधन की उम्र रहेगी? इंडिया गठबंधन की नींव रखने वाले जदयू के नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पहले ही भाजपा के साथ गलबहियां डाल चुके हैं।
जब इंडिया गठबंधन को लेकर बात चली थी, तभी इसकी उम्र को लेकर सवाल उठा था। ऐसा नहीं है कि इंडिया गठबंधन में शामिल दलों को लोकसभा चुनावों में फायदा नहीं हुआ है, लेकिन कोई भी दल इस बात को मानने को तैयार नहीं है। इंडिया गठबंधन का जो भविष्य अभी दिखाई दे रहा है, वह सिर्फ इतना है कि कागजों पर यह चलता रहेगा, लेकिन सभी क्षेत्रीय दल अपने-अपने इलाके में स्वतंत्र रूप से काम करते रहेंगे। वैसे भी हरियाणा चुनाव में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस स्वतंत्र होकर लड़े। निकट भविष्य में दिल्ली में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए भी केजरीवाल अकेले लड़ेंगे। बंगाल में भी टीएमसी ने कांग्रेस और वामपंथी दलों से अलग होकर लोकसभा का चुनाव लड़ा था। उत्तर प्रदेश में जरूर समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने मन से एक होकर चुनाव लड़ा और उसके सकारात्मक नतीजे भी आए।
सवाल यह है कि दो दर्जन से अधिक क्षेत्रीय दलों को मिलाकर बनने वाले इंडिया गठबंधन में कांग्रेस को अब क्या करना चाहिए? हरियाणा, महाराष्ट्र, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि में कांग्रेस को मिली करारी हार के बाद गठबंधन के दलों को लगने लगा है कि कांग्रेस के नेतृत्व में और उसको साथ लेकर चलने से कोई फायदा होने वाला नहीं है। तो फिर इंडिया गठबंधन का नेतृत्व कर पाने में सक्षम कौन है? ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, अखिलेश यादव, उद्धव ठाकरे, एमके स्टालिन, तेजस्वी यादव, शरद पवार या कोई और? कांग्रेस को छोड़कर इंडिया गठबंधन में शामिल किसी भी दल का राष्ट्रीय आधार नहीं है। फिर कांग्रेस के अलावा इंडिया गठबंधन में कौन सा दल है, जिसका नेतृत्व भाजपा या कहिए एनडीए विरोधी दलों के नेता स्वीकार कर लेंगे।
ममता बनर्जी से लेकर तेजस्वी यादव तक क्या सभी दलों के नेताओं को स्वीकार्य होंगे? शायद कतई नहीं। यदि भाजपा और एनडीए के विरोध में खड़ा होना है, तो आज विपक्ष के पास कांग्रेस के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। हां, किसी को राहुल गांधी से दिक्कत हो सकती है, मल्लिकार्जुन खड़गे से परेशानी हो सकती है, प्रियंका गांधी वाड्रा भी अस्वीकार्य हो सकती हैं, लेकिन पार्टी के तौर पर कांग्रेस ही उनके पास विकल्प है। ऐसी स्थिति में सबसे अच्छा यही है कि कांग्रेस खुद नेतृत्व छोड़ दे। और कह दे कि जिसको संभालना हो इंडिया गठबंधन। कांग्रेस के आलाकमान से लेकर निचले स्तर के कार्यकर्ता तक जुट जाएं, पार्टी संगठन खड़ा करने में। लोकसभा चुनाव में अभी साढ़े चार साल बाकी हैं। यह समय कम नहीं है, तो ज्यादा भी नहीं है। सिर्फ और सिर्फ पार्टी संगठन खड़ा करने पर ही कांग्रेस ध्यान दे। तो संभव है कि अगले लोकसभा चुनाव तक इस हैसियत में आ जाए कि इंडिया गठबंधन के सभी दलों को उसका नेतृत्व स्वीकार करने को मजबूर होना पड़े। लेकिन ऐसा होने वाला नहीं है क्योंकि पिछले कई दशक से कांग्रेस फुरसती पार्टी हो गई है। सबसे गंभीर मसले को लेकर भी कांग्रेस हाईकमान का रवैया ऐसा रहता है कि चलो, जब फुरसत होगी, तब इस मामले को सुलझाया जाएगा। तब तक मामला हाथ से निकल चुका होता है। कांग्रेस में हर काम आराम से होता है। और नतीजा सबके सामने है। कांग्रेस को नेता नहीं, कार्य संस्कृति बदलने की जरूरत है, तभी कांग्रेस का भला होगा।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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