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Editorial: ज्यादा जीते हैं बच्चों के साथ समय बिताने वाले बुजुर्ग

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देश रोज़ाना: सामाजिक ताने-बाने में आए बदलाव से दुनिया में शायद ही कोई देश हो, जो अछूता रह गया हो। एशिया, यूरोप, अमेरिका और अफ्रीका महाद्वीप तक इसका असर देखने को मिल सकता है। हमारे यहां भी जबरदस्त बदलाव आया है। आस्ट्रेलिया में तो एक नया प्रयोग शुरू किया गया है। वहां वृद्धाश्रमों में बच्चों और किशोरों को एक साथ समय बिताने का मौका दिया जा रहा है। इसके बहुत सकारात्मक परिणाम सामने आ रहे हैं। इससे जहां बुजुर्ग खुश रहते हैं, वहीं बच्चों को भी नया कुछ सीखने को मिलता है। वैसे यह कहना तो शायद गलत होगा कि सिर्फ भारत या भारत के पड़ोसी देशों में ही संयुक्त परिवार पाए जाते हैं। वैसे संयुक्त परिवार की परंपरा मानव सभ्यता में आदिकाल से रही है।

हां, जैसे-जैसे समाज विकसित होता गया, लोग विस्थापित होकर रोजी-रोटी की तलाश में इधर से उधर जाने लगे, तो एक परिवार की अवधारणा सामने आई। पश्चिम में बहुत पहले बड़े पैमाने पर एकल परिवार या माइक्रो फैमिली की अवधारणा को स्वीकार कर लिया गया। एशियाई देशों में थोड़ा देर से इसे मान्यता मिली। निस्संदेह इससे हमारा सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो गया। एकल परिवार बढ़े, तो बुजुर्गों का अकेला रहना मजबूरी बन गई। संयुक्त परिवार में दादा-दादी, ताया-ताऊ, नाना-नानी, मामा-मामी के साथ रहने वाले बच्चे और किशोर मानसिक रूप से स्वस्थ और सहिष्णु होते थे।

बच्चे और किशोर अपने पिता से एक पीढ़ी के पहले वाले बुजुर्गों के साथ रहकर जीवन के वे तमाम सबक सीख लेते थे जिनसे उन्हें भावी जीवन में दो चार होना होता था। सही क्या है, गलत क्या है? अच्छा क्या है, बुरा क्या है, वे अपने दादा-दादी, नाना-नानी के साथ रहकर सहजता से जान जाते थे। वे अपने मां या बाप के माता-पिता के साथ रहकर खेलते थे, कूदते थे, हंसी-मजाक करते थे। इससे वे मानसिक रूप से स्वस्थ रहते थे। यदि वे कोई गलत हरकत करते थे, तो उनके बुजुर्ग तत्काल टोक देते थे। गलती बड़ी हो, तो वे उन्हें दंडित भी करते थे। इससे बच्चे ही नहीं घर के बुजुर्ग भी खुश रहते थे। उन्हें बुढ़ापे में होने वाली दिक्कतें महसूस नहीं होती थी। कोई विशेष काम न होने की वजह से उनका समय भी आसानी से कट जाता था।

अपने नाती-नातिन, पौत्र-पौत्रियों के साथ हंसते-खेलते घर के छोटे-मोटे काम भी कर लिया करते थे। नतीजा यह होता था कि बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास तो होता ही था, बुजुर्ग भी कम ही रोगग्रस्त होते थे क्योंकि बच्चों और किशोरों की वजह से उनमें सक्रियता बनी रहती थी। बच्चों और किशोरों को बुजुर्ग किस्से-कहानियां सुनकर उनका और अपना मनोरंजन तो करते ही थे, उनकी कल्पना शक्ति का भी विकास करते थे। ये किस्से-कहानियां उन्हें समाज के साथ सामंजस्य बिठाने में भी काफी मदद करती थीं। वे एक अच्छे नागरिक बनने का पाठ घर में ही सीख लेते थे। बच्चों की पहली पाठशाला घर और बच्चों के पहले गुरु यही बुजुर्ग दादा-दादी, नाना-नानी होते थे। आज इसी की कमी महसूस हो रही है।

  • संजय मग्गू
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