हमारे यहां धर्म और अध्यात्म दोनों अलग-अलग हैं। धर्म की जड़ें व्यक्तिगत विश्वासों और संस्थागत प्रणालियों में अंतर्निहित हैं। हमारे अवतारों, संतों, महात्माओं के उपदेश, उनकी लीलाएं और उनसे जुड़े प्रेरक प्रसंग हमारे धर्म का आधार हो सकते हैं, लेकिन अध्यात्म इससे अलग है। धर्म और अध्यात्म एक दूसरे से सर्वथा अलग हैं। धर्म तो आध्यात्मिक उन्नयन का साधन मात्र है। तो फिर अध्यात्म क्या है? अध्यात्म अपने भीतर की यात्रा है। अपने अंतर्मन की अनंत यात्रा का मार्ग अध्यात्म ही प्रशस्त करता है। अपने ध्यान को संकेंद्रित कर अंतर्मन की यात्रा कीजिए, वहां क्या मिलेगा? अनंत शून्य, जहां न उत्तर है, न दक्षिण, न पूर्व है, न पश्चिम। न कुछ ऊपर है, न कुछ नीचे। अपने को खोजने की साधना ही अध्यात्म है। हमारे देश की सबसे पवित्र माने जाने वाले ग्रंथ गीता में कहा गया है कि उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत। आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:। यानी आप अपना ही उद्धार करें, अपना अधपतन न करें।
आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा ही आत्मा का शत्रु है। गीता को ही पूरी दुनिया में आध्यात्मिक उन्नयन का संविधान होने का दर्जा प्राप्त है। हमारे ही देश में बृहस्पति, उनके शिष्य चार्वाक, लौक्य और अंगिरस जैसे नास्तिकों को भी मान्यता मिली। उन्होंने जो कुछ भी कहा, लिखा, उसका विरोध तो हुआ, लेकिन निंदा या शारीरिक क्षति पहुंचाने के स्तर तक विरोध नहीं हुआ। ऐसे देश में जहां आस्तिकता और नास्तिकता की विचारधाराएं एक दूसरे के समानांतर चलती रही हों, उस देश में, वह भी इक्कीसवीं सदी में, चमत्कार की प्रत्याशा में ‘भोलेनाथ’ जैसे बाबाओं की शरण में जाना आश्चर्यचकित करता है। हमारे देश में पनपा, फला फूला कोई भी धर्म हो, किसी ने चमत्कार को मान्यता नहीं दी। बौद्ध, जैन, सनातन और सिख धर्म में कहीं चमत्कार को प्रश्रय नहीं दिया गया।
हिंदू धर्म की जितनी भी शाखाएं हैं, उनमें भी कहीं चमत्कार को स्वीकार किया गया हो, ऐसा नहीं है। फिर किसी भोले बाबा के स्पर्श से रोग दूर हो जाएंगे, बाबा के चमत्कार से गरीबी दूर हो जाएगी, ऐसी अंधश्रद्धा सचमुच व्यथित करने वाली है। इक्कीसवीं सदी में भी बाबाओं, संतों की शरण में जाने वाली सबसे बड़ी आबादी दलितों की है। दलित समुदाय सदियों से गरीबी, अशिक्षा और पिछड़ेपन का शिकार रहा है। उसमें भी महिलाएं कुछ ज्यादा ही पददलित रही हैं।
ऐसी स्थिति में उन्हें तनिक भी आशा हो कि फलां व्यक्ति उनकी स्थिति में सुधार ला सकता है, वह उसके पीछे चल देती हैं। दलित और पिछड़े समाज की कुछ महिलाएं इन बाबाओं के एजेंट के रूप में काम करती हैं। वे बाबा या कथित परमात्मा के चमत्कार का वर्णन ऐसे ढंग से करती हैं कि अशिक्षित और गरीब स्त्री या पुरुष का सम्मोहित हो जाना स्वाभाविक है। ऊपर से सदियों से उनके ऊपर लादे गए अंधविश्वास ऐसे मामलों में उत्प्ररेक विष का काम करते हैं जो उनके विवेक की सक्रियता को कम कर देते हैं।
-संजय मग्गू