स्वामी विवेकानंद ने जीवन भर लोगों की सेवा और सहायता का प्रण लिया था। वे संत होते हुए भी दीन-दुखियों की सहायता करने में कभी पीछे नहीं रहते थे। अगर उन्हें पता चलता था कि फलां जगह पर महामारी फैली है, बाढ़ आई है या किसी दूसरी प्रकार की आपदा आई है तो वे उस स्थान पर पहुंचकर मरीजों और लोगों की सेवा करते। उनके गुरु ने कहा था कि हिमालय की किसी कंदरा में बैठकर तपस्या करने से बेहतर है कि अपने देश के दरिद्र नारायण की सेवा की जाए। यह बात उन्हें आजीवन याद रही। कई बार तो उन्होंने दरिद्र नारायण की सेवा और मदद के लिए धनिकों से चंदा किया और जो कुछ भी मिला, उसे लाकर गरीबों की मदद की।
अमेरिका के शिकागो में हुए धर्म संसद में जाने के बाद भी उन्होंने अमेरिका में भी यह क्रम जारी रखा। अमेरिका में रहते हुए एक दिन की घटना है। भ्रमण करने एवं भाषणों के बाद स्वामी विवेकानन्द अपने निवास स्थान पर आराम करने के लिए लौटे हुए थे। उन दिनों अमेरिका में भी वे अपने हाथों से भोजन बनाते थे। वे भोजन बनाकर खाने की तैयारी कर ही रहे थे कि कुछ बच्चे उनके पास आकर खड़े हो गए।
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उनके अच्छे व्यव्हार के कारण बहुत बच्चे उनके पास आते थे। वे सभी बच्चे भूखे मालूम पड़ रहे थे। स्वामी जी ने अपना सारा भोजन बच्चों में बांट दिया। वहां पर एक महिला बैठी ये सब देख रही थी। उसने बड़े आश्चर्य से पूछा-आपने अपनी सारी रोटियां तो इन बच्चों को दे डाली, अब आप क्या खाएंगे? स्वामी जी मुस्कुराते हुए बोले-माता! रोटी तो मात्र पेट की ज्वाला शांत करने वाली वस्तु है। यदि इस पेट न सही तो उनके पेट में ही सही। आखिर वे सब भगवान के अंश ही तो हैं। देने का आनंद, पाने के आनंद से बहुत बड़ा है। यह सुनकर वह महिला उनकी उदारता समझ गई।
-अशोक मिश्र
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