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भगवान न करे, मुझे साम्राज्य मिले

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भारत के चक्रवर्ती सम्राटों में समुद्र गुप्त का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। उनका एक नाम अशोकादित्य भी बताया जाता है। इतिहास में विख्यात सम्राट अशोक दूसरे थे, इन्हें एक नहीं समझना चाहिए। चंद्र गुप्त प्रथम ने अपने जीवन काल में ही समुद्र गुप्त को अपने राज्य का उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था। इससे समुद्र गुप्त के बड़े भाई नाराज हो गए। सम्राट समुद्र गुप्त ने चालीस साल तक पूरे भारत पर शासन किया। उन्होंने अपने काल के कई प्रतापी राजाओं को पराजित किया और उनके राज्य को अपने राज्य में मिला लिया।

उन्हें पूरे देश में विद्रोह का शांत करने में कई साल लगे। काफी वर्षों तक राज करने के बाद सम्राट समुद्र गुप्त को महसूस हुआ कि वह कुछ चिंतित रहने लगे हैं। राज्य के कामों का बोझ उन पर बढ़ता जा रहा था। एक दिन की बात है। वे अपने ही राज्य में कहीं जा रहे थे। यात्रा के दौरान भी उन पर कई तरह की चिंताएं सवार थीं। एक जंगल के किनारे से गुजरने पर उन्हें बांसुरी की एक मीठी धुन सुनाई पड़ी। उन्होंने सारथी को रथ रोकने को कहा। रथ से उतर कर वह बांसुरी की आवाज की ओर चल पड़े।

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कुछ दूर चलने के बाद उन्होंने देखा कि एक युवक एक पेड़ के तने से टिक कर मस्ती में बांसुरी बजा रहा है। उसकी गाएं पास में ही चर रही थीं। जब बांसुरी बजाना बंद हुआ तो राजा ने कहा कि आप तो ऐसे बांसुरी बजा रहे थे मानो कोई साम्राज्य मिल गया हो। उस युवक ने कहा कि मैं इस समय साम्राज्य मिलने जैसा सुख उठा रहा हूं। भगवान न करे, मुझे कोई साम्राज्य मिले। साम्राज्य मिलने पर व्यक्ति स्वतंत्र नहीं रह जाता है। वह व्यक्ति साम्राज्य का सेवक हो जाता है। साम्राज्य से ज्यादा सुखद स्वतंत्रता होती है। यह सुनकर समुद्र गुप्त ने युवक को अपना परिचय दिया, तो वह युवक चकित रह गया।

Ashok Mishra

-अशोक मिश्र

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