उम्मीद’ यानी ‘आशा’ बहुत ही चमत्कारी शब्द है। यह एक ऐसा शब्द है जिसकी जीवन में बहुत बड़ी भूमिका होती है। यह शब्द मरणासन्न व्यक्ति में भी अंतिम सांस तक जीने की प्रत्याशा जगाता है कि क्या पता बच ही जाएं। इन दिनों लोकसभा चुनाव की सरगर्मियां तेज हैं। रैलियां की जा रही हैं। भाषण दिए जा रहे हैं। आश्वासनों की रेवड़ियां बांटी जा रही हैं। विरोधियों पर हमले किए जा रहे हैं। अपने को पाक साफ और विरोधी को नीच, निकृष्ट और पापी साबित करने की होड़ लगी हुई है, क्यों? क्योंकि उम्मीद है, ऐसा करने से शायद जीत ही जाएं। हर उम्मीदवार को उम्मीद है कि वह जीत ही जाएगा। यह भावना ही उसे चैन से बैठने नहीं दे रही है।
वाराणसी में पीएम मोदी के खिलाफ निर्दलीयों ने पर्चा क्यों दाखिल किया है? रायबरेली में राहुल गांधी के खिलाफ कोई कम निर्दलीय चुनाव मैदान में हैं? एक उम्मीद है, क्या पता, उम्मीद रूपी भाग्य का छींका टूट पड़े और वे जीत जाएं। पिछले डेढ़-दो महीने से पूरे देश में मौसम की गरमी को भी मात दे रही है राजनीतिक गरमी। प्रचंड धूप में भी उम्मीदवार चैन से नहीं बैठ रहे हैं। मतदाताओं को रिझा रहे हैं। उनसे संपर्क कर रहे हैं। उन्हें न धूप की चिंता है, न प्यास की। न भोजन सुहा रहा है, न पानी। बस, एक उम्मीद में गली-गली, मोहल्ले-मोहल्ले संपर्क किए जा रहे हैं कि शायद फलां व्यक्ति उनसे प्रभावित होकर वोट दे दे। आश्वस्त कोई नहीं है। यदि इतने ही आश्वस्त होते, तो पीएम मोदी वाराणसी में इतना भव्य रोड शो और तामझाम नहीं करते। राहुल गांधी और उनकी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा रायबरेली की खाक नहीं छानते। बस, उम्मीद है कि ये नामी-गिरामी उम्मीदवार जीत जाएंगे।
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दुनिया का कोई भी समाज हो, परिवार हो, व्यक्ति हो, उम्मीद रहित नहीं हो सकता है। यह उम्मीद ही थी जिसने हमें आगे की ओर बढ़ना सिखाया। यह तब से है, जब से इंसान और इंसानी समाज में थोड़ी सी भी समझ आई। इसी समझ ने इंसानों में उम्मीद जगाई। हमारे उत्तर भारत में जब किसी की बहू, बेटी या बहन गर्भवती होती है, तो आम बोलचाल में यही कहा जाता है कि फलां की बहू, बेटी या बहन ‘उम्मीद’ से है। इस ‘उम्मीद’ को जन्म इस प्रत्याशा से दिया जाता है कि पैदा होने वाला बच्चा बड़ा होकर अपने मां-बाप, भाई या बहन या पूरे परिवार की देखभाल करेगा।
अपने बुजुर्गों की सेवा करेगा। हर मां-बाप अपने बच्चे को पढ़ा लिखाकर, एक सभ्य और सुसंस्कृत नागरिक इसी उम्मीद के साथ बड़ा करते हैं। हम जीवन के प्रत्येक पल उम्मीद के सहारे ही व्यतीत करते हैं। आज ऐसा करेंगे, तो उम्मीद है, कल वैसा हो जाएगा। यह जो कल की प्रत्याशा है, यही जीवन है। एक तरह से कहने का यह मतलब है कि उम्मीद ही जीवन है। जीवन से उम्मीद यानी आशा को शून्य कर दीजिए। क्या बचता है? एक बड़ा सा शून्य। हम अपने जीवन में कुछ भी करते हैं, एक आशा के वशीभूत होकर ही करते हैं। यह आशा ही हमें जीवन भर नचाती है और हम नाचते रहते हैं। सचमुच, उम्मीद बड़ी कुत्ती चीज होती है। चैन से बैठने भी नहीं देती है।
-संजय मग्गू
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