जब कोई व्यक्ति अपने आराध्य के गुणों, कार्यों और वचनों को याद रखने, उनके बताए गए मार्ग का अनुसरण करने की जगह मूर्ति बनाकर पूजा करने लगता है, तो उसे अच्छा नहीं माना जाता है। कुछ लोग तो अपने आदर्श के जीवित रहते ही उसकी पूजा करते हैं, जबकि होना यह चाहिए कि अपने आराध्य या आदर्श के बताए मार्ग पर चला जाए। ठीक यही स्थिति एक बार महात्मा बुद्ध की हुई। श्रावस्ती में एक युवक रहता था बकबिल।
वह महात्मा बुद्ध का प्रवचन सुनने रोज जेतवन जाया करता था। इससे उसके मां-बाप काफी परेशान रहते थे। वह जब तक महात्मा बुद्ध के दर्शन नहीं कर लेता था, उसे चैन नहीं मिलता था। अपने मां-बाप की टोकाटाकी से परेशान होकर एक दिन उसने बौद्ध बनने का फैसला किया। जब वह संघ में रहने लगा, तो वह सुबह उठकर सबसे पहले महात्मा बुद्ध के दर्शन करता, उसके बाद वह दूसरा काम करता। महात्मा बुद्ध यह समझ गए थे कि वह उनकी देह को लेकर आसक्त है। वह यह समझता है कि यह देह अनादिकाल तक मौजूद रहेगी।
वह शरीर को नश्वर मानने की जगह चिर मानता है। चूंकि बकबिल अभी नया नया बौद्ध बना था, तो उसे समझाना उचित नहीं समझा। कुछ साल बीतने के बाद एक दिन महात्मा बुद्ध किसी के निमंत्रण पर प्रवचन देने दूसरे शहर जा रहे थे, तो यह जानकर बकबिल रोने लगा कि वह इतने दिनों तक उनके दर्शन किए बिना कैसे रहेगा? महात्मा बुद्ध ने उसे बड़े प्यार से समझाया कि यह शरीर नश्वर है। इसके प्रति तुम्हारा मोह उचित नहीं है। मोह करना है, तो मेरे विचारों से करो। उन्हें दूसरों तक पहुंचाओ। यह सुनकर उसे शरीर की नश्वरता का ज्ञान हुआ। उसने बुद्ध से क्षमा मांगी और बुद्ध दर्शन को आत्मसात करने लगा।
-अशोक मिश्र