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HomeEDITORIAL News in Hindiयाद कीजिए, कब किसी धुन पर थिरके या गाए थे!

याद कीजिए, कब किसी धुन पर थिरके या गाए थे!

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जीवन में कई बार ऐसे पल आते हैं, जब मन उदास होता है, कुछ करने का मन नहीं होता है। कहीं एकांत में बैठकर बिसूरने या रोने का मन करता है। व्यक्ति पूरी तरह अवसाद की जकड़न में होता है। ऐसी स्थिति से अगर कुछ छुटकारा दिला सकता है, तो वह है गायन और नृत्य। हमारे देश में जब खेती से जुड़े काम महिलाएं करती हैं, तो वे लोकगीत गाती हैं। क्यों? क्योंकि काम के दौरान महसूस होने वाली थकान से मुक्ति मिलती रहे। काम करने की ऊर्जा बनी रहे। लोकगीत गाने से उन्हें खुशी मिलती है। इससे उनका मन बोझिल नहीं होता है।

वे हंसी खुशी काम करती रहती हैं। कुछ ऐसा ही पुरुष भी करते हैं, लेकिन उनकी संख्या बहुत कम होती है। वे महिलाओं की तरह सामूहिक गायन नहीं करते हैं। बस गुनगुना लेते हैं। दरअसल, गायन और नृत्य सिर्फ मनोरंजन का साधन ही नहीं होते हैं, वह शरीर को स्वस्थ रखने का सबसे बेहतरीन साधन भी हैं। जब व्यक्ति गुनगुनाता या गाना गाता है, तो उसका दिमाग गायन पर ही लगा रहता है। वह अपनी तमाम परेशानियां, दर्द और दुख भूल जाता है। नृत्य करने से पूरा शरीर क्रियाशील हो जाता है। लोग समझ नहीं पाते हैं, नृत्य और गायन किसी भी औषधि से कम असरदार नहीं हैं। एशिया महाद्वीप का एक देश है जापान। वहां आए दिन भूकंप आते रहते हैं। विपदा में भी जीवन चलता रहता है। कल सुखद और सुरक्षित रहे, इसके लिए वहां के लोग लोकनृत्य और गायन के जरिये ईश्वर से सुखद भविष्य की कामना करते हैं। सदियों से वहां के लोग यह नृत्य करते चले आ रहे हैं।

इस नृत्य को वहां की भाषा में फुर्यु-ओदारी कहते हैं। इस नृत्य और गायन में जापान के अलग-अलग प्रांतों में थोड़ा बहुत बदलाव आता है, लेकिन उद्देश्य सबका एक ही होता है कि कल सुखद रहे। भविष्य सुखद रहे, इसी कामना से लोग मंदिर जाते हैं। वहां पूजा पाठ के साथ-साथ श्लोक या मंत्र का सामूहिक या व्यक्तिगत गायन करते हैं। यह गायन उस समय उन्हें सभी परेशानियों, आंतरिक उद्वेगों और अवसाद को भूलने में मदद करते हैं। जब हम समूह में चाहे मंदिर हो या कहीं और, गा या नृत्य कर रहे हों, तो हम सब कुछ भूल जाते हैं।

जब आज की तरह नागरिक जीवन में तमाम तरह की सुविधाएं नहीं हुआ करती थीं, उस समय स्त्री और पुरुष के मनोरंजन, अवसाद, घृणा जैसे मनोभावों को दूर करने में लोकनृत्य और लोकगायन ही सहायक हुआ करता था। दिनभर हाड़तोड़ मेहनत के बाद लोग झुंड बनाकर नाचते-गाते थे। लोक कलाओं का आविष्कार ऐसे ही हुआ है। इन्हीं लोककलाओं के जरिये स्त्री और पुरुष अपनी कथा व्यथा भी प्रकट करते थे। लोकगीत हों या लोकनृत्य, इनमें आम इंसान की पीड़ा का प्रकटीकरण जितनी गहराई और सशक्त ढंग से हुआ है, वह अन्यत्र संभव नहीं हो पाया है। हमारे सभ्य होने से पहले यही लोक गीत और लोक नृत्य किसी औषधि की तरह मनोविकारों को दूर में अहम भूमिका निभाते थे। अब तो जैसे हम नाचना और गाना भूलते जा रहे हैं।

-संजय मग्गू

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