वेंकटरामन अय्यर यानी रमण महर्षि आधुनिक युग के बहुत बड़े संत और ऋषि थे। मद्रास के तिरुचुली में 30 दिसंबर 1879 में पैदा हुए वेंकटरामन अय्यर के पिता अपने समय के नामी वकील थे। रमण महर्षि बचपन से ही साधु प्रवृत्ति के थे। वह अपने साथियों के समान खेलने-कूदने में अधिक रुचि नहीं लेते थे। कहा जाता है कि वह अद्वैतवाद के समर्थक थे। उनका मानना था कि परमानंद की प्राप्ति ‘अहम’ को मिटाने तथा अंत:साधना से होती है। जो व्यक्ति अपने अहंकार को मिटा देता है, वह संतत्व को प्राप्त हो जाता है। एक बार की बात है।
उनके आश्रम के पास में ही एक व्यक्ति ने आत्महत्या का प्रयास किया। आश्रम के लोगों ने उसे आत्महत्या का प्रयास करते देख लिया, तो उसे लेकर वह रमण महर्षि के पास गए। रमण महर्षि ने आत्महत्या के प्रयास का कारण पूछा, तो उसने बताया कि वह अपने घर की परेशानियों को जितना खत्म करने की कोशिश करता हूं, उतनी ही बढ़ती जाती है। पत्नी भी नित नई परेशानियां खड़ी करती रहती है। रमण महर्षि ने उससे पूछा कि आप क्या काम करते हैं? उसने बताया कि वह स्कूल में अध्यापक है और पड़ोस के गांव में रहता है।
रमण महर्षि उस समय आश्रम वासियों के लिए पत्तल तैयार कर रहे थे। वह बड़े मनोयोग से पत्तल को तैयार कर रहे थे। यह देखकर वह अध्यापक सोचने लगा कि थोड़ी देर बाद ही इसे कूड़े में फेंक दिया जाएगा, लेकिन जितनी तल्लीनता से वह बना रहे हैं। वह अद्भुत है। आखिरकार उस आदमी ने यह बात पूछ ली, तो उन्होंने कहा कि इस पत्तल की उपयोगिता तब है जब लोग खाने के बाद फेंक दें। अगर खाने से पहले फेंक दिया गया, तो इसकी उपयोगिता ही क्या रही? यह सुनकर वह अध्यापक समझ गया कि महर्षि उसे क्या समझाने की कोशिश कर रहे हैं।
-अशोक मिश्र
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