महर्षि अनमीषि को अक्षर महर्षि भी कहा जाता है क्योंकि वे अपने आश्रम में अक्षर यानी विद्यादान किया करते थे। वे अपने आश्रम में ब्रह्मचारियों को पढ़ाते और आसपास के लोग उनके लिए अन्न की व्यवस्था कर देते थे। एक बार उनके पास एक संत आया और अन्न मांगा। उन्होंने कहा कि मैं तो अपने आश्रम के बच्चों को अक्षर दान करता हूं। मेरे पास अन्न कहां है जो मैं दान करूं। उस संत ने महर्षि अनमीषि से कहा कि जो व्यक्ति अपने परिश्रम से कमाकर अन्न का एक भाग दान नहीं करता है, वह पाप का अन्न खाता है। यह बात अनमीषि के दिल में गड़ गई।
उन्होंने अपनी पत्नी से विचार विमर्श किया। उसके बाद उन्होंने नियम बना लिया कि जब तक वे किसी जरूरतमंद को भोजन नहीं करा देंगे, वे स्वयं भोजन नहीं ग्रहण करेंगे। उनका यह नियम काफी समय तक चलता रहा। एक दिन ऐसा भी हुआ कि उनके द्वार पर कोई भी भिक्षा मांगने नहीं आया। तब वे किसी उपयुक्त पात्र की तलाश में कुटिया से बाहर आए। उन्होंने देखा कि सामने के वृक्ष के नीचे एक बुजुर्ग लेटा है। वह कुष्ट रोग से पीड़ित था और पीड़ा से कराह रहा था। उन्होंने उस बुजुर्ग से कहा कि भोजन तैयार है। चलकर आप भोजन करें।
उस आदमी ने कहा कि ऋषिवर! मैं चांडाल हूं। आपके आश्रम में कैसे जा सकता हूं। यह देखकर महर्षि द्रवित हो उठे। वह उस बुजुर्ग को अपनी कुटिया में लाए और उसके रोगों का उपचार किया। उसे नए कपड़े पहनाए। फिर उसे बड़े सम्मान के साथ भोजन कराया। उस बुजुर्ग को भोजन कराने के बाद ही उन्होंने अपनी पत्नी के साथ भोजन ग्रहण किया। उस रात महर्षि अनमीषि बहुत सुकून के साथ सोए। आधी रात में उन्हें लगा कि कोई उनके कान में कह रहा हो कि आपने अच्छा काम किया।
-अशोक मिश्र