संस्कृत साहित्य में कवि और नाटककार अश्वघोष का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। इनको संस्कृत साहित्य का पहला नाटककार माना जाता है। इनकी प्रसिद्ध रचना बौद्ध चरितम है जिसमें उन्होंने महात्मा बुद्ध के जीवन चरित को दर्शाया है। उस समय तक हमारे देश में यवनों का आगमन हो चुका था।
अश्वघोष का समयकाल पहली ईस्वी शताब्दी माना जाता है। कहा जाता है कि यवन नाट्यशास्त्र से अश्वघोष ने बहुत कुछ सीखा था। यही वजह है कि यवनों के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए उन्होंने अपने नाटकों के अंत में यवनिका शब्द का उपयोग किया है जिसका मतलब है कि पर्दा गिरता है। बौद्ध साहित्य के अनुसार इनका जन्म अयोध्या में हुआ था। इनको एक यवन तरुणी से प्रेम हो गया था। इनकी मां सुर्वाक्षी को यह पसंद नहीं था। इसलिए उस यवन तरुणी ने सरयू नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली थी। उसके वियोग में अश्वघोष को संसार से विरक्ति हो गई। वह इधर उधर भटकने लगे। इसके चलते कई दिनों तक खाना न खाने से शरीर कमजोर हो गया था।
एक दिन वे कहीं जा रहे थे। उन्होंने देखा कि एक किसान बड़े प्रसन्न मन से खेत जोत रहा है। उन्होंने पूछा तो किसान ने बताया कि मैंने ईश्वर के दर्शन कर लिए हैं। इसलिए प्रसन्न हूं। उन्होंने ईश्वर दर्शन की कामना व्यक्त की। किसान दो मुट्ठी चावल लाया और उसे पकाकर खुद भी खाया और अश्वघोष को भी खिलाया। कई दिनों बाद भोजन मिलने से उनको नींद आ गई। सोकर उठने पर उनको अपना शरीर हलका लगा। वैराग्य भी कम हो चुका था। किसान अपने घर जा चुका था। अब अश्वघोष की समझ में आ गया था कि वैराग्य की जगह कामना रहित श्रम ही समाज का भला कर सकता है।