इन दिनों लगातार बच्चियों, महिलाओं और नाबालिग किशोरों के साथ यौन शोषण की खबरें इतनी ज्यादा संख्या में सामने आ रही हैं कि समाज में एक विक्षोभ की स्थिति पैदा हो गई है। लोग भयभीत हैं। अपनी बहन-बेटियों की सुरक्षा को लेकर। करें तो क्या करें? किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा है। हम यह कैसे समाज का निर्माण कर बैठे हैं। क्या यही मानव समाज है जिसका सपना हमारे ऋषि-मुनियों, विचारकों, दार्शनिकों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने देखा था? यह तो पशु समाज से बदतर प्रतीत हो रहा है। नहीं, यह मानव समाज नहीं हो सकता है जिसमें दो-दो साल की बच्चियां तक सुरक्षित न रहें। बुजुर्ग महिलाएं निर्द्वंद्व होकर कहीं आ जा न सकें। समाज सिर्फ लोगों का समूह नहीं होता है। उसमें चेतना होती है। यह चेतना ही हमें अच्छे-बुरे का फर्क बताती है।
अगर हम अच्छे-बुरे का फर्क नहीं कर सकते हैं, तो फिर काहे को मनुष्य हैं? हम तो पशु से भी बदतर हुए। हमारे धर्म ग्रंथों में कहा गया है कि एक शरीर में छह तरह की मनोवृत्तियां रह सकती हैं। पहली पशुता, दूसरा राक्षसत्व, तीसरा संतत्व, चौथा देवत्व, पांचवां ईश्वरत्व और छठ मनुष्यत्व। अब हमें यह तय करना है कि हमारे भीतर कौन रहेगा? ऐसा लगता है कि पहली दो प्रवृत्तियां मनुष्य में कहीं गहरे पैठ गई हैं। यही वजह है कि हम पशुता और राक्षसत्व पर उतारू हो गए हैं। हमने अपने संतत्व, देवत्व, ईश्वरत्व और मनुष्यत्व को या तो मार दिया है या फिर अंतरात्मा में कहीं बहुत गहरे दफन कर दिया है। यह मनुष्य पर निर्भर करता है कि वह समाज में कैसा आचरण करेगा। भगवान राम, भगवान श्रीकृष्ण जैसे तमाम अवतारों ने कभी अपने को ईश्वर या देवता साबित करने का प्रयास नहीं किया।
उन्होंने अपने आचरण और व्यवहार से मनुष्यत्व को ही उदाहरण के रूप में पेश किया। सीता हरण पर चाहते तो वे एक पल में लंका पहुंचकर रावण का वध कर सकते थे। भगवान थे। लेकिन नहीं उन्होंने अपने आचरण और कार्य से समाज के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत करना था। यही वजह है कि उन्होंने तत्कालीन समाज के दबे-कुचले, निरीह और हेय समझी जाने वाली जातियों, जनजातियों को संगठित किया, उन्हें मान-सम्मान दिया और अन्याय के खिलाफ लड़ने का एक हौसला दिया। श्री कृष्ण ने भी आजीवन यही किया। उन्होंने अपने देवत्व या ईश्वरत्व को कभी प्रकट नहीं किया।
एक मनुष्य की तरह उन्होंने पशुता और राक्षसत्व के खिलाफ लड़ाई लड़ी। चलिए माना कि हम ईश्वर नहीं हो सकते हैं। देवता भी नहीं हो सकते हैं। समाज को एक सार्थक मार्ग दिखाने वाला संत भी नहीं हो सकते हैं। लेकिन कम से कम हम एक मनुष्य तो हो ही सकते हैं। मनुष्य होना हमारे हाथ में है। अगर हमने मानव योनि में जन्म लिया है, तो हमारा सबसे पहला गुण तो मानवता होनी चाहिए। हम अपनी पहली प्रवृत्ति से ही किनारा करते जा रहे हैंं। पशुता और राक्षसी प्रवृत्ति हमारी मूल प्रवृत्ति होती जा रही है।
-संजय मग्गू